सहमति का दावा करने के लिए यौन संबंध का आदी होने की बात पर सुप्रीम कोर्ट सख्त
शीर्ष अदालत ने राजू उर्फ नृपेंद्र सिंह और दो अन्य की ओर से मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर अपील को खारिज कर दिया। अपील में 17 वर्षीय किशोरी को उसके रोजगार के लिए विभिन्न स्थानों पर ले जाने के बाद उसके साथ बार-बार सामूहिक दुष्कर्म करने के लिए उन्हें दी गई 10 साल की सजा को बरकरार रखा गया था।

नई दिल्ली (आरएनआई) सुप्रीम कोर्ट ने दुष्कर्म के मामलों में उस मेडिकल रिपोर्ट पर आपत्ति जताई है, जिसमें सहमति से संबंध के पक्ष में यौन संबंध के आदी होने की बात कही गई है। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने इन शब्दों के इस्तेमाल पर आपत्ति जताते हुए कहा कि यह पुरानी धारणा के अलावा और कुछ नहीं है, जिसका उद्देश्य पीड़िता को नैतिक रूप से शर्मिंदा करना है।
शीर्ष अदालत ने राजू उर्फ नृपेंद्र सिंह और दो अन्य की ओर से मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर अपील को खारिज कर दिया। अपील में 17 वर्षीय किशोरी को उसके रोजगार के लिए विभिन्न स्थानों पर ले जाने के बाद उसके साथ बार-बार सामूहिक दुष्कर्म करने के लिए उन्हें दी गई 10 साल की सजा को बरकरार रखा गया था। पीठ ने कहा कि जब घटना के समय पीड़िता नाबालिग साबित हो जाती है तो सहमति का प्रश्न स्वयं अप्रासंगिक हो जाता है। अपीलकर्ताओं ने दावा किया था कि लड़की अपने अभिभावक को बताए बिना स्वेच्छा से उनके साथ घर से चली गई थी और वह दो महीने तक उनके साथ रही और उस दौरान वह सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करके सिद्धि, रीवा, इलाहाबाद और दिल्ली जैसी कई जगहों पर गई, जहां वह मदद के लिए कॉल या अलार्म बजा सकती थी। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, जिससे स्पष्ट है उसकी सहमति थी। पीठ ने कहा, भले ही सहमति के तर्क पर विचार किया जाए, हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि आरोपी अपीलकर्ता पुरुष थे, जिन्होंने नाबालिग पीड़िता को जान को खतरा पहुंचाकर लंबे समय तक बंधक बनाए रखा था।
पीठ ने कहा कि पीड़िता द्वारा लगातार भय के माहौल में काम करने को खारिज करना अतार्किक होगा क्योंकि दो महीने की अवधि में आरोपी व्यक्तियों द्वारा उसका दुष्कर्म किया जा रहा था। आरोपी डर से यौन संबंध बनाने को पीड़िता की सहमति के रूप में नहीं समझा जा सकता है। अदालत ने यह भी कहा कि उसके शरीर पर चोटों की कमी भी मामले के तथ्यों में एक महत्वपूर्ण कारक नहीं होनी चाहिए क्योंकि अपराध दो महीने तक जारी रहा और दुष्कर्म की पहली घटना के काफी समय बाद चिकित्सा जांच की गई।
अपीलकर्ताओं ने एफआईआर दर्ज करने में देरी का मुद्दा भी उठाया। इस पर पीठ ने कहा कि देरी का मुद्दा भी मामले के लिए अप्रासंगिक होगा, क्योंकि देरी का सामान्य नियम दुष्कर्म के मामलों पर लागू नहीं होता है। अपीलकर्ताओं ने पहले से काटी गई सजा की अवधि को कम करने का भी तर्क दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 9 मई, 2014 को उनकी सजा को निलंबित कर दिया था। पीठ ने कहा, हमें लगता है कि अपीलकर्ताओं ने कोई भी अच्छा आधार नहीं बताया जिसके आधार पर ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों में हस्तक्षेप किया जा सके। पीठ ने कहा कि न्याय तभी पूरा होगा जब आरोपी-अपीलकर्ता 10 साल की सजा की पूरी अवधि भुगतेंगे। कोर्ट ने अपीलकर्ताओं को आठ सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया है।
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