सरकारी ज़मीन पर माफिया राज: अफसरशाही और वकीलों की साज़िश

Apr 12, 2025 - 11:33
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सरकारी ज़मीन पर माफिया राज: अफसरशाही और वकीलों की साज़िश

गुना (आरएनआई) ऊंची अदालत द्वारा सरकार से पूछा गया ये प्रश्न इतना कठिन भी नहीं है कि इसका जबाव खोजना मुश्किल हो। सरकारी जमीन के केस सरकारी सिस्टम में बैठे भ्रष्ट अफसर और अदालतों में सरकार की ओर से पैरवी के लिए तैनात किए जाने वाले अंशकालीन वकीलों की कलाकारी की वजह से हारे जाते हैं। गुना का एक मामला उदाहरण के लिए संक्षिप्त में रख रहा हूं।

बंद हो चुके टोल नाके के पास अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति को पट्टे पर दी गई सरकारी जमीन विक्रय निषेध होने के बाद भी अवैध रूप से एक सामान्य जाति के व्यक्ति के नाम कर दी गई थी। उसने वह जमीन भूमाफिया को बेंच दी। मामला उजागर हुआ तो अफसर ने राजस्व दस्तावेजों में नामांतरण निरस्त कर दिया। भूमाफिया के सिंडिकेट ने इस करोड़ों की जमीन को तिकड़म लगा कर हड़पा था वहां परकोटा बनाकर कॉलोनी काटी गई थी। सिंडिकेट को अपने संसाधनों पर भरोसा था सो उसने अदालत का रुख किया। दीवानी अदालत में वह जीत गया। 

इसके बाद वह अपीलीय अदालत में भी जीता। कारण कि राजस्व विभाग के जिम्मेदारों ने जानबूझकर अदालतों में सही और मजबूत पक्ष नहीं रखा। सरकार द्वारा नियुक्त काबिल कार्यकर्ता वकील साहबों पर तो हमेशा यह कहने की गुंजाइश रहती ही है कि विभाग ने जो दस्तावेज पेश किए उस अनुसार सरकार का पक्ष हमने मजबूती से अदालत में रख दिया था। फैंसला कोर्ट को करना था कोर्ट ने फैसला कर दिया। अक्सर ऐसे मामलों में अपील तक नहीं की जाती, होती भी है तो खानापूर्ति भर।

बाद में पता चला कि उक्त जमीन पर काटी गई कॉलोनी में सरकार की ओर से नियुक्त वकील, कुछ पत्रकार, पुलिसवाले, सिस्टम के नुमाइंदों आदि के प्लॉट भी हैं। कॉलोनी के पास वनभूमि का रट्टा भी था तो वनकर्मियों के प्लॉट भी हैं। ये खेल समझना कठिन नहीं है। निचली अदालतों से मनचाहे निर्णय कैसे हुए किसी से छुपा नहीं है। 

इस बेशकीमती सरकारी जमीन के मामले में मप्र भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा 165 के वैधानिक प्रावधान का घोर उल्लंघन हुआ है। पर किसी ने इस पर गौर करना उचित नहीं समझा। अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के नाम और उसके आधिपत्य में रही पट्टे की उक्त जमीन, सक्षम अधिकारी (कलेक्टर) की अनुमति के बगैर ही सामान्य वर्ग के व्यक्ति को मिल गई और उसने भू माफिया को बेच दी। इस महत्वपूर्ण मामले में उच्च न्यायालय से न्याय की उम्मीद है। साथ ही दोषियों पर प्रॉसिक्यूशन के ऑर्डर की दरकार भी है। कर्णधारों के ज़मीर जिंदा रहे तो न्याय मिल सकता है।

इसी तरह सरकार का एक और विभाग जिसे टी एंड सीपी (टाउन एंड कंट्री प्लानिंग) कहते हैं वो तो भ्रष्टाचार में सबसे बड़ा सिकंदर है। वह ऐसी कॉलोनियों के नक्शे भी पास कर देता है जिसमें भू माफिया (सो कोल्ड कॉलोनाइजर) ने सरकारी जमीन को घेर कर पार्क बताया हो। टी एंड सीपी एक टीप के साथ ऐसे नक्शे पास कर देता है कि "शासकीय भूमि में प्रवेश का रास्ता सुरक्षित रखा जाए।" तथा अंत में लिखता है कि शर्तों का उल्लंघन होने पर अनुमति स्वतः निरस्त मानी जाएगी।

कुल मिलाकर आंखों देखी मक्खी खाई जाती है। कागजों पर वैध लेकिन शर्तों की पूर्ति न किए जाने से धरातल पर अवैध ऐसी कॉलोनियों में न तो पार्क के बीच लाई गई सरकारी जमीन सुरक्षित बचती है और न ही उस पर सरकार बाद में ध्यान देती है। सीधा लाभ भू माफिया को मिलता है जो शर्तों का पालन नहीं करता।

ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें सरकारी जमीन कॉलोनियों की बाउंड्री वॉल के भीतर लेकर हड़पी जा चुकी है। इंदौर में ऐसे ही एक मामले में टाउन एंड कंट्री प्लानिंग के पूर्व संयुक्त संचालक समेत आठ लोगों पर सरकारी जमीन पर गबन का केस दर्ज किया गया था। इन्होंने सरकारी जमीन को कॉलोनी के अंदर होने पर ले-आउट पास कर दिया था। ऐसे घपलों की आप शिकायत कर लीजिए राजस्व विभाग पहले तो कोई कार्यवाही करेगा नहीं। बाद में लिखकर दे देगा कि कॉलोनी का नक्शा टी एंड सीपी से पास है।

जबकि टाउन एंड कन्ट्रीं प्लानिंग के जानकार बताते हैं कि कॉलोनाइजर के द्वारा विभिन्न नंबरों की कुल भूमि में वैद्य  परमिशन में अगर किसी एक नंबर की अनुमति पर विवाद या उसे शासन निरस्त करता हैं तो पूरी कॉलोनी के लिए गए नंबरों की कॉलोनी की वैध अनुमति निरस्त मानी (कैंसिल) जाती हैं। वही इसमें रेरा की शर्तों के तहत रॉयल्टी की रसीद ग्राम पंचायत की कच्ची पर्चियों से कटवाने का बताया गया,जो वैद्य नहीं होती

इससे आप समझ सकते हैं कि सरकारी जमीनें किस तरह अदालतों को जरिया बनाकर उनमें आधे अधूरे तथ्य रखकर या कमजोर पैरवी के चलते साजिशन हड़पी जा रही हैं। तथा किस तरह सिस्टम के लोग सरकारी जमीनों को निपटाने में लगे हैं।

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