'राष्ट्रपति को तीन महीने में विधेयकों पर फैसला करना चाहिए', सुप्रीम कोर्ट की अभूतपूर्व टिप्पणी
पीठ ने फैसले में कहा कि 'तीन महीने की समयसीमा से ज्यादा की देरी होने पर उचित कारण देने होंगे और इस बारे में संबंधित राज्य को सूचित करना होगा। राज्यों को भी सहयोगात्मक होना चाहिए और विधेयक को लेकर उठाए जा रहे सवालों के उत्तर देकर सहयोग करना चाहिए।'

नई दिल्ली (आरएनआई) पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने अपनी एक टिप्पणी में सलाह दी है कि राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर राज्यपालों द्वारा भेजे गए लंबित विधेयकों पर फैसला ले लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर दिए गए अपने फैसले में यह टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के पास लंबित 10 विधेयकों को पारित करने का आदेश दिया। ये विधेयक राज्यपाल ने राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजने के चलते लंबित किए हुए थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को यह फैसला दिया था और फैसले की कॉपी बीती रात सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड हुई है।
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव देते हुए राष्ट्रपति के पास विधेयकों को लंबित रखने की समयसीमा भी तय करने की बात कही है। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की अध्यक्षता वाली पीठ ने 8 अप्रैल को दिए अपने फैसले में कहा कि 'हम गृह मंत्रालय द्वारा निर्धारित समय-सीमा को अपनाए जाने को उचित समझते हैं और ये सलाह देते हैं कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा उनके विचारार्थ आरक्षित विधेयकों पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना जरूरी है।' पीठ ने कहा कि इस समयसीमा से ज्यादा की देरी होने पर उचित कारण देने होंगे और इस बारे में संबंधित राज्य को सूचित करना होगा। राज्यों को भी सहयोगात्मक होना चाहिए और विधेयक को लेकर उठाए जा रहे सवालों के उत्तर देकर सहयोग करना चाहिए और केंद्र सरकार द्वारा दिए गए सुझावों पर तेजी से विचार करना चाहिए।'
पीठ ने अपने फैसले में राज्यपाल द्वारा विधेयक को दूसरे राउंड में भी राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजने को अवैध बताया। गौरतलब है कि संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को शक्ति देता है कि वे उनके पास मंजूरी के लिए आने वाले विधेयक को लेकर असहमति जता सकते हैं या फिर इसे राष्ट्रपति के विचार करने के लिए भेज सकते हैं। पीठ ने फैसले में कहा कि 'अनुच्छेद 200 में विधेयक को मंजूरी देने की कोई समयसीमा तय नहीं है, लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं है कि राज्यपाल विधेयक को लंबे समय तक रोके रखें और राज्य की कानून बनाने वाली व्यवस्था में अवरोधक बन जाएं।'
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