मैं हूं मथुरा संग्रहालय, समय की छाती पर लिखी इबारत

बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि यह मथुरा की मूर्ति कला ही थी, जिसने देवी देवताओं का मानवीकरण कर उन्हें घर-घर में पूज्य बना दिया।

Jan 8, 2025 - 09:00
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मैं हूं मथुरा संग्रहालय, समय की छाती पर लिखी इबारत

मथुरा (आरएनआई) मैं संग्रहालय हूं, समय की छाती पर लिखी इबारत। सदियों के सृजन और संहार की सीख समेटे मथुरा का उन्नत भाल। समय जो किसी के लिए नहीं ठहरता। मैं हूं जो समय से पीछे मुड़कर देखने में मदद करता हूं। धर्मनगरी मथुरा की ऐसी ही सदियों की गाथा समेटे मुझे 151 वर्ष हो गए। मैं ही बीते कल की बुलंद तस्वीर हूं। मुझसे मिले बिना कैसे समझोगे कि आज है वो कल कैसा था। क्या है जिसे पीढय़ों का निर्माण किया। वह क्या है जिससे हमारी संस्कृति बनी और सभ्यता के कंगूरे गढे गए।

विदेशियों के नाम पर फैली वितृष्णा के बीच वह क्या है जो इनके सामाजिक ताने बाने से गढ़ा गया है, जिसके होने में ही आज का होना है। मेरे ही आंचल में मिलेंगे विश्व की बेहतर मूर्ति कला के नमूनों के प्रमाण। वह मेरे ही कलाकार थे जिनकी छैनियां चित्तीदार लाल पत्थरों से टकराकर उन्हें मानवीय रूपों का संगीत देती रहीं। विश्व में बेहतर मूर्ति कला के जितने भी प्रमाण मिलेंगे उसने मेरे ही आंगन में रूप लिया। सौंख, कंकाली टीला, जमालपुरटीला, मांट, आन्योर, गोविंदनगर तो ऐसी मूर्तियों के खजाने निकले।

यह मथुरा की ही कला थी जिसने देवी देवताओं का मानवीयकरण कर उन्हें घर-घर में पूज्य बनाया। साफ कहें तो यह मथुरा ही था जिसने मूर्ति पूजा का विकास किया उसे नया आयाम दिया। इस सत्य को मुझसे गुजरे बिना कैसे जाना जा सकता है। कैसे जाना जाएगा कि जिसे हम भारतीय सभ्यता कहते हैं वह कितनी छोटी-छोटी धाराओं से बनी महानदी है। इसे समझना है तो समय की नदी में उतरना होगा, मेरे तट पर आना होगा।

मथुरा शहर के डैंपियर नगर का वह कोना जहां शहीद ए आजम उन्नत सिर लिए खड़े हैं उसी की बाजू में है मेरा विशाल प्रांगण- राजकीय संग्रहालय। इसमें प्रवेश करते ही मुस्कराते बुद्ध की आदमकद प्रतिमा आपका शुभ करेगी। वह देखो सामने है राजकीय संग्रहालय का विशाल भवन। अंदर चलें इससे पहले ऐसा कुछ है जिसे जानना जरूरी है। मथुरा बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म का बड़ा केंद्र रहा। यह कृष्ण और सातवें तीर्थंकर सुपार्शवनाथ की जन्मभूमि रही। भगवान बुद्ध के यहां कदम पड़े। उत्तर भारत की यह वैभवशाली नगरी मथुरा कला का मुख्य केंद्र रही और फाहयान और ह्वेनसांग के समय यह बौद्ध धर्म का बड़ा केंद्र थी।

कुषाण काल में यहां की मूर्ति कला शैली स्वतंत्र रूप से विकसित हुई। इसी शैली में लोकपूजा की आरंभिक यक्ष मूर्तियों का अन्य देव प्रतिमाओं में समन्वय किया गया। यहां बड़ी संख्या में यक्षों की मूर्ति देखने को मिलेंगी। मेरी स्थापना मथुरा के जिलाधिकारी रहे विद्वान एफ.एस. ग्राउस ने 1874 में की। तब मैं कचहरी के पास एक छोटे भवन में था। वर्तमान भवन में मुझे 1930 में लाया गया। हाल में ही सरकार ने 5 करोड़ रूपये खर्च कर मुझे नया रूप दिया है। वह जो मूर्तियों को शीशे के बाक्स में देखते हो यह हाल ही का काम है। तो चलिए अंदर चलते हैं।

मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही हम खुद को कुषाण राजाओं के दरबार में पाते हैं। यहां सम्राट कनिष्क, उसके पूर्ववर्ती विम, शक क्षत्रप चष्टन और एक अन्य राजकुमार की मूर्तियां हैं। यहीं हमें मथुरा कला की वह झलक मिलती है जिसके लिए पूरी दुनिया में उसका नाम है। यहां संकेत तो दाहिनी और मृणमूर्तियों की वीथिका से शुरू करने का है लेकिन पहले हम इस कुषाण दरबार को जान लें।

बांई तरफ बिना सिर के जो मूर्ति देख रहे हो वह सम्राट कनिष्क की है। कनिष्क की पूरे देश में यह एक मात्र मूर्ति है। इसे मथुरा की ही एक तहसील मांट स्थित इटोकरी टीला से निकाला गया। यूची वंश का यह विख्यात शासक पहले यहूदी था जो भारत आकर बौद्ध हो गया। इसके समय मथुरा कला चरम पर पहुंची। यही वो समय है जिस पर मुझे आज भी गर्व है। यही वो काल था जब बुद्ध की कालजयी मूूर्ति बनी। वह जो मेरे प्रांगण में विशाल आदमकद बुद्ध देखते हो यह उसी काल में बनी बुद्ध प्रतिमा की प्रतिकृति है। इसी की एक सहोदर कृति राष्ट्रपति भवन की शोभा बढ़ाती है।

कनिष्क ने कामदानी चोंगा और सलवार पहन रखी है। भारत में बाद के राजपूत राजाओं ने इस पहनावे को खूब अपनाया। कनिष्क के हाथ में दुधारी तलवार भी है और उसने योद्धाओं वाले भारी जूते पहन रखे हैं। इसके ठीक सामने विमकडफाइसिस सिंहासन पर बैठा है। यह कनिष्क का पूर्ववर्ती कुषाण राजा था। यह मूर्ति भी मांट के इटोकरी से मिली है। इसका भी सिर कटा हुआ है। इसके लंबे कोट, सलवार और जूतों पर कशीदे का खूबसूरत काम है। उसकी गोद में पड़े रेशमी वस्त्र पर कलाकारों ने जो महीन सिलवटें उकेरी है, उससे मथुरा कला की भव्यता का पता साफ चलता है। विम की मूर्ति के दाहिनी ओर चष्टन की मूर्ति है। इसे भारत में शक पश्चिमी भारत में शक शासन का जन्मदाता था। इटोकरी से ही मिली यह तीसरी मूर्ति है। यह घुटने तक कोट और सलवार पहने है। कमर पर बंधी पेटी पर खूबसूरत अंलकरण किया गया है।

इसके ठीक सामने एक और राजकुमार की प्रतिमा है जो गोकर्णेश्वर से मिली है। यहां से हम सीधे दांयी कोने में बनी मृणमूर्तियां वीथिका में चलेंगे। सच तो यह है कि मथुरा के विकास को क्रम से समझने के लिए यही से शुरूआत की जाए। इस वीथिका में मथुरा के ही एक कस्बे सौंख से मिले मिट्टी के बर्तन है। यह ब्रज संस्कृति के सबसे पुराने अवशेष हैं। मिट्टी की मूर्तियों में मौर्य काल, शुंग काल, कुषाण काल और गुप्त काल की मूर्तियां देखने को मिलेंगी। यहां मथुरा कला की प्राचीनतम देव मूर्तियों देखने को मिलेंगी। यहीं स्त्री केशों से प्राचीनतम केश विन्यास भी देखने को मिल जाएंगे। इसके आगे प्रस्तर मूर्तियां शुरू हो जाती हैं। यहीं शुंगकाल के स्तूप के अवशेष मिलेंगे। यहां अनेक ऐसी मूर्तियां हैं जिससे यह साफ पता चलता है कि बुद्ध का मानव रूप में अंकन कुषाण काल से पहले ही हो गया था। यहां मोरा गांव से मिला एक धड़ है जो पंचवृष्णि वीरो में से एक का माना जाता है।

आगे कुषाण काल में बनी मूर्तियां हैं। माना जाता है कि बुद्ध की मानव रूप में पहली प्रस्तर मूर्ति मथुरा कला में ही बनी। यहां महोली से मिली विशाल बोधिसत्व और अन्योर से मिली बुद्ध प्रतिमा, मथुरा से मिली पार्शवनाथ की प्रतिमा है। यहीं नेमिनाथ के साथ बलराम और कृष्ण की प्रतिमा है। कहा जाता है कि नेमिनाथ कृष्ण-बलराम के ताऊ समुद्रविजय के पुत्र थे। यहीं आसवपायी कुबेर, विशाल यक्ष आदि मूर्तियां देखने को मिलेंगी। यहीं परखम से मिली यक्ष की विशाल मूर्ति हैं, जिनकी लोकदेवता के तौर पर पूजा होती थी।

अब हम चलकर फिर मुख्य द्वार पर आ गये हैं। यहां से कुषाण दरबार को छोड़ते हुए आगे बढऩे पर सबसे पहले तमाम सूर्य प्रतिमाएं दिखेंगी। इनमें सूर्य की प्रतिमाओं का पहनावा शक राजकुमारों सा है। कुषाण काल में सर्वाधिक सूर्य प्रतिमाएं बनाईं गईं। इसके आगे नाग वीथिका है। यहां देखने को मिलता है कि बलराम की मूर्तियां भी नाग मूर्तियों की तरह बनाई जाती थीं। इससे आगे ब्राह्मण मूर्तियों की गैलरी है। यहां की गुप्त काल की गैलरी में कृष्ण की वह प्रारंभिक मूर्ति है जिसमें वसुदेव उन्हें लेकर यमुना पार करते दिख रहे हैं। यहीं कुषाण काल का वेदिका स्तंभ भी है। इससे आगे गुप्त काल की

मूर्ति वीथिका है। इस वीथिका में सबसे सामने बुद्ध की वह प्रसिद्ध मूर्ति है जिसकी प्रतिकृति हम प्रांगण में देख चुके हैं। इससे आगे विष्णु और पंचमुखी महादेव की मूर्ति है। इसी गेलरी में कार्तिकेय की मूर्ति मिलेगी। कार्तिकेय की मूर्ति पूजा कनिष्क के समय ही शुरू हुई। कहते हैं कि कनिष्क ने ही इसे शुरू कराया। इसे पार कर हम गांधार कला की गैलरी में आ गए हैं। स्लेटी पत्थर पर बनी मूर्तियां गांधार कला की विशेष पहचान है।

इस गैलरी के बीच में शक क्षत्रप राजवुल की महिषी कम्बोजिका की प्रतिमा है। सप्तऋषि टीले से मिली यह मूर्ति गांधार शैली का उत्कृष्ण नमूना है। इस मूर्ति का वस्त्र विन्यास, गुथी चोटी और पीछे लटकते दो फीते यूनानी कला का परिचायक हैं। यहां गांधार शैली की बुद्ध जातक प्रतिमाएं भी हैं। साफ है कि मथुरा और गांधार कला की छाप एक दूसरे पर पड़ी है। इसी कक्ष से निकलकर हम गैलरी में आ जाते हैं जहां पूरे गलियारे में दीवार से सैकड़ों मूर्तियां लगी हैं। यहां कंकाली टीले से मिली कार्तिकेय की मूर्ति भी है।

यहां दसभुजी गणेश, सूर्य और विष्णु की मूर्तियां हैं। इस गलियारे का चक्कर लगाते हुए हम भवन से बाहर आ जाते हैं। कई युगों से गुजरते हुए यह वर्तमान की यात्रा है। बाहर सन्नाटा है और सामने पार्क जिसका रखरखाव करने वाला कोई नहीं। मन सोच रहा है कि इतने समृद्ध अतीत का इतना उदास वर्तमान कैसे हो सकता है। हाय हतभाग। संस्कृति और सभ्यता से जूझ मरने वाली इस व्हाटसअप और फैसबुकिए युग के युवाओं के पास समय ही कहां कि वह रूककर अपने ही घर आंगन की युगगाथा को देख और समझ सकें। यही मेरा रूदन है और यही मेरी पीड़ा।

मथुरा संग्रहालय और उसके महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि जैन, बुद्ध और ब्राह्मण धर्म की प्रारंभिक मूर्तियां मथुरा शैली में ही बनाई गईं। इसके नमूने इस संग्रहालय में देखे जा सकते हैं। यही नहीं बुद्ध की सबसे पहली मूर्ति मथुरा शैली में ही बनाई गई। मथुरा शहर के महत्व और यहां की कला को समझना है तो इस संग्राहलय से बढिय़ा जगह दूसरी नहीं। - डॉ. शिवप्रसाद सिंह, डायरेक्टर राजकीय संग्रहालय मथुरा

मथुरा कला की जैन और बौद्ध मूर्तियों की पहचान यह है कि यह लाल चित्तीदार पत्थर पर बनी हैं, जबकि गांधार शैली की मूर्तियां काले-भूरे पत्थर पर हैं। दूसरे जैन और बुद्ध की मूर्तियों को पहचान के अन्य चिन्ह भी हैं। अगर जैनियों की पदमासन मूर्तियों के बाल के घुंघराले सिर एंटीक्लाक हैं जबकि बुद्ध के क्लाकवाइज। इसके अलावा मूर्ति के नीचे उस देवता के वाहन चिन्ह भी अंकित होते हैं। मथुरा कला में उत्कृष्ट मूर्तियों का निर्माण किया गया। इनका मुकाबला विश्व की किसी कला में नहीं। - धीरेंद्र शर्मा, प्रसिद्ध पुरातत्वविद

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