मुकदमे में देरी के कारण जेल में रखना न सिर्फ आरोपियों, पीड़ितों के लिए भी बुरा

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, हमने कई बार स्पष्ट किया है कि चाहे अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो, अभियुक्त को संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार त्वरित सुनवाई का मौलिक अधिकार है। पीठ ने कहा, मामले में अपीलकर्ता को जमानत पर रिहा करने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा है, क्योंकि वह पांच साल से जेल में है।

Feb 16, 2025 - 09:00
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मुकदमे में देरी के कारण जेल में रखना न सिर्फ आरोपियों, पीड़ितों के लिए भी बुरा

नई दिल्ली (आरएनआई) सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुकदमे में अत्यधिक देरी के कारण आरोपी को लंबे समय तक जेल में रखना न सिर्फ उसके लिए बुरा है, बल्कि पीड़ितों के लिए भी उतना ही बुरा है। इतना ही नहीं, यह भारतीय समाज और हमारी मूल्यवान न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता के लिए भी बुरा है। शीर्ष अदालत ने कहा कि मुकदमों में देरी और जमानत के मुद्दे पर सही और उचित परिप्रेक्ष्य में विचार करने का समय आ गया है।

जस्टिस जेबी पारदीवाला व जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने छत्तीसगढ़ में 24 मार्च, 2020 को नक्सली सामग्री ले जाने के आरोप में गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार तपस कुमार पालित को जमानत दे दी। साथ ही जोर दिया कि ट्रायल कोर्ट व सरकारी अभियोजकों को सुनिश्चित करना चाहिए कि गवाहों की लंबी सूची त्वरित सुनवाई के अधिकार को प्रभावित न करे। पीठ ने मामले में अभियोजन पक्ष की 100 गवाहों की सूची पर भी आपत्ति जताई और कहा, यदि एक विशेष तथ्य को स्थापित करने के लिए 100 गवाहों की जांच की जाती है तो कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा। जहां तक गवाहों की जांच का सवाल है, सरकारी वकील से अपेक्षा की जाती है कि वह विवेक का इस्तेमाल बुद्धिमानी से करे। जहां गवाहों की संख्या अधिक है, वहां सभी को पेश करना जरूरी नहीं है।  

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, हमने कई बार स्पष्ट किया है कि चाहे अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो, अभियुक्त को संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार त्वरित सुनवाई का मौलिक अधिकार है। पीठ ने कहा, मामले में अपीलकर्ता को जमानत पर रिहा करने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा है, क्योंकि वह पांच साल से जेल में है। राज्य के वकील को अंदाजा नहीं है कि 100 गवाहों के मद्देनजर मुकदमे को पूरा करने में कितना समय लगेगा।

पीठ ने कहा कि जज भी ऐसे मामलों में सावधानी बरतें। दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसे मामलों को कुशलतापूर्वक निपटाने के कई उपकरण हैं। पीठ ने कहा कि यदि किसी आरोपी को विचाराधीन कैदी के रूप में छह से सात साल जेल में रहने के बाद अंतिम फैसला मिलना है, तो कहा जा सकता है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित सुनवाई के उसके अधिकार का उल्लंघन हुआ है।  

पीठ ने कहा, अभियुक्तों को लंबे समय तक कारावास में रहने के लिए वित्तीय मुआवजा नहीं दिया जाता है। हो सकता है कि उसने अपनी नौकरी या आवास भी खो दिया हो, कारावास के दौरान उनके व्यक्तिगत संबंधों को नुकसान पहुंचा हो और कानूनी फीस पर काफी धन खर्च किया हो। यदि कोई अभियुक्त व्यक्ति दोषी नहीं पाया जाता है, तो संभवतः उसे कई महीनों तक कलंकित किया गया होगा।

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