ज्योतिष कितने वर्षो पुराना है -जानते है क्या सुश्रुत चिकित्सा में ज्योतिष की सहायता लेते थे - डॉ सुमित्रा जी से
ज्योतिष शास्त्र का आरम्भ कब हुआ, यह प्रश्न अक्सर लोगो की जिज्ञासा को बढ़ाता है। विभिन्न विद्वानों ने ज्योतिष के आरम्भ काल का निर्णय विभिन्न प्रकार से किया है ।
वाल्मीकीय रामायण में ज्योतिष
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में अनेक स्थलों पर ज्योतिष का उल्लेख किया है -
ऐसा ही एक उदहारण है राजा दशरथ और राम संवाद - राम जी का राज्य अभिषेक होना है और इसी विषय में दशरथ रामजी से वार्ता करते हुए कहते है की - ज्योतिषियों का कहना है कि उनका जन्म नक्षत्र को सूर्य, मंगल और राहू नामक भयंकर ग्रहों ने आक्रान्त कर लिया है। ऐसे अशुभ लक्षणों के प्राकट्य होने पर प्रायः राजा घोर आपत्ति में पड़ जाता है और अन्ततोगत्वा उसकी मृत्यु भी हो जाती है।"आज चन्द्रमा पुष्य से एक नक्षत्र पहले पुनर्वसु पर विराजमान है। अतः निश्चय ही कल वे पुष्य नक्षत्र पर रहेंगे- ऐसा ज्योतिषी कहते हैं"। इस लिए उस पुष्य नक्षत्र में वे राम का अभिषेक कराने की सलाह दे रहे है। उनका मन राज्याभिषेक कराने में बहुत शीघ्रता करने को कहता है। इसलिए वे अगले दिन ही अवश्य राज्याभिषेक करेंगे।
महर्षि वेद व्यास ने महाभारत ग्रन्थ में अनेक स्थलों पर ज्योतिषीय स्थितियों का उल्लेख किया है -
महर्षि वेद व्यास ने ज्योतिष गणना के आधार पर कुरुवंश के विनाश की बात को सामने रख्खा। "केतु चित्रा का अतिक्रमण करके स्वाति पर स्थित हो रहा है। उसकी विशेष रूप से कुरुवंश के विनाश पर ही दृष्टि है।" "अति भयंकर धूमकेतु पुष्य नक्षत्र पर आक्रमण करके वहीं स्थित हो रहा है; यह महान उपग्रह दोनों सेनाओं का घोर अमंगल करेगा।" "मंगल वक्री होकर मघा नक्षत्र पर स्थित है। बृहस्पति श्रवण नक्षत्र पर बिराजमान है तथा सूर्य पुत्र शनि पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र पर पहुँचकर उसे पीड़ा दे रहा है "। "शुक्र भाद्रपद पर आरूढ़ होकर प्रकाशित हो रहा है और सब ओर घूम-फिर कर परिध नामक उपग्रह के साथ उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र पर दृष्टि लगाए हुए है।" "चित्रा और स्वाति के बीच में स्थित हुआ क्रूर ग्रह राहू वक्री होकर रोहिणी और चन्द्रमा और सूर्य को पीड़ा पहुँचाता है तथा अत्यन्त प्रज्वलित होकर ध्रुव की बाई ओर जा रहा है जो घोर अनिष्ट का सूचक है। "
इस प्रकार स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि महाभारत काल में ज्योतिष अत्यन्त विकसित अवस्था में था। महाभारत युद्ध के पश्चात एक अन्धकार युग आया और धीरे-धीरे ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित ग्रन्थ विनष्ट हो गए। इस प्रकार इस विज्ञान के वैज्ञानिक व्याख्या के सूत्रों का विस्मरण हो गया।
सृष्टि की कालावधि की गणना का उपर्युक्त सिद्धान्त सूर्य सिद्धान्त में बतलाया गया है ।
सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग - चार युग की गणना श्रीमद्भागवत महापुराणम में दी गई है।
ज्योतिष कब आरम्भ हुआ
भारत में ज्योतिष के आरम्भ काल के निर्धारण के लिए ज्योतिष शास्त्र का प्राचीनतम ग्रन्थ 'सूर्य सिद्धान्त अत्यन्त सहायक है। सूर्य सिद्धान्त में उल्लिखित काल गणना के आधार पर लगभग २१ लाख वर्ष के आस-पास निर्धारित किया है। उपर्युक्त काल निर्धारण की प्रक्रिया का आधार 'सूर्य सिद्धान्त' में उल्लिखित काल गणना का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार बारह हजार दिव्य वर्षों का एक चतुर्युग अर्थात एक महायुग होता है। इसी महायुग में तैंतालीस लाख, बीस हजार सौरवर्ष होते हैं। एक दिव्य वर्ष (देवताओं का वर्ष) में ३६० सौर वर्ष (मनुष्यों का वर्ष ) माने गए हैं। वह जो चतुर्युग का मान कहा गया है, वह संध्या और सध्यांश के सहित है।
कृत, त्रेता और द्वापर तथा कलियुग- कलियुग में धर्म के एक चरण, द्वापर में दो चरण, त्रेता में तीन चरण और कृत युग में चार चरण होते हैं। इस कारण कलियुग की कालावधि से दुगुनी द्वापर की कालावधि और तीन गुना त्रेता की कालावधि तथा चार गुना सत्ययुग की कालावधि होती है। इस प्रकार एक हजार महायुगों के तुल्य एक कल्प होता है। यह एक कल्प ही ब्रह्मा का एक दिन है जो हमारी वर्तमान सृष्टि की कालावधि है।
क्या नासा ने रामेश्वरम तथा लंका के मध्य समुद्र में विद्यमान सेतु की पुष्टि की ?
भारत की इस काल गणना का निश्चित वैज्ञानिक आधार है। वैज्ञानिकों ने अब तक शोध करके सृष्टि रचना सम्बन्धी जितने तथ्य प्रकट किए हैं उनमें से अधिकांश भारतीय मान्यताओं से मेल खा रहे हैं। नासा शटल से प्राप्त उपग्रहीय चित्रों रामेश्वरम तथा लंका के मध्य समुद्र में विद्यमान एक सेतु का स्पष्ट चित्र प्राप्त हुआ है। नासा के अनुसन्धानों के अनुसार, यह सेतु सत्रह लाख साठ हजार साल पुराना है तथा यह मानव निर्मित है। त्रेता युग में राम ने रामेश्वरम तथा लंका के मध्य सेतु का निर्माण कराया था।
'सूर्य सिद्धान्त' की काल गणना के अनुसार, त्रेता युग की कालावधि नौ लाख से २१ लाख वर्ष के मध्य आती है। अतएव राम का काल १७ लाख ६० हजार वर्ष प्राचीन होना सत्य प्रतीत होता है।
चिकित्सा, आयुर्वेदा और ज्योतिष
भारत में तो प्राचीन काल से ही चिकित्सा तथा ज्योतिष में घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है। आयुर्वेद के विद्वानों में चरक, सुश्रुत तथा बागभट्ट ने न केवल चिकित्सा शास्त्र के बल्कि ज्योतिर्विज्ञान को भी महत्ता दी । प्राचीन शल्य चिकित्सक सुश्रुत ने तो सर्जरी करने से पहले श्रेष्ठ तिथि, करण, मुहूर्त और नक्षत्र को भी ध्यान में रखने को कहा है। सुश्रुत ने एक अन्य अध्याय में रोगों को उत्पन्न करने वाले अनेक कारणों का उल्लेख करते हुए ग्रह नक्षत्रों के दुष्प्रभावों को भी रोगों का एक कारण माना है। आयुर्वेद को आठ अंगों में विभक्त किया गया है। इसके चतुर्थ अंग में ग्रह नक्षत्रों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवरण हैं। औषधियों के निर्माण करने में भी विशिष्ट तिथियों आदि का ध्यान रखने का निर्देश 'चरक संहिता' में उपलब्ध होता है। आयुर्वेद में यह मान्यता रही है कि चिकित्सक को आयुर्वेद के साथ-साथ ज्योतिष का भी ज्ञान होना चाहिए। मानव मस्तिष्क शरीर का सर्वाधिक संवेदनशील भाग है। आज के युग में परम आवश्यकता है की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में तत्सम्बन्धी अति प्राचीन ज्योतिषीय सिद्धान्तों का पुनरावलोकन, परीक्षण तथा विज्ञान सम्मत व्याख्या की जाये।
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