गंगा दशहरा 16 जून 2024 पर विशेष पतित पावनी व मोक्ष दायिनी मां गंगा की आराधना का पावन पर्व है गंगा दशहरा : डॉ. राधाकांत शर्मा
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मथुरा (आरएनआई) गंगा दशहरा पतित पावनी और जीवन दायिनी मां गंगा की आराधना का सबसे बड़ा और विशेष पर्व माना जाता है।गंगा दशहरा का पर्व ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है।पौराणिक कथाओं में ऐसा वर्णन आता है, कि ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को ही मां गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुईं थीं।
गंगा अवतरण के विषय में स्कंद पुराण, शिव पुराण और रामायण आदि ग्रंथों में ऐसा वर्णन आता है कि प्राचीन काल में राजा भागीरथ ने कपिल मुनि की क्रोधाग्नि से भष्म हुए अपने साठ हजार पूर्वजों की आत्मशांति और प्रत्येक जन मानस के कल्याण हेतु मां गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तपस्या की थी।जिसके फलस्वरूप ही परमपिता ब्रह्माजी ने अपने कमंडल से पतित पावनी मां गंगा को पृथ्वी पर भेजा था।राजा भागीरथ की कठोर साधना के कारण ही स्वर्ग से पृथ्वी पर आईं मां गंगा भागीरथी कहलाईं।
जिस दिन मां गंगा पृथ्वी पर आईं उस दिन ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी होने की वजह से इस तिथि को गंगा दशहरा कहा गया।दशहरा का अर्थ है दस प्रकार के पापों का हरने वाला।
स्कंद पुराण में कहा गया है -
श्लोक - अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानत: ।
परदारोप सेवा च कायिकं त्रिविधम् स्मृतम्।।
पारुष्यम नृतंचैव पैशुन्यम् चापि सर्वश:।
असंबद्ध प्रलांपश्च वाड्यमयम् स्याच्चतुर्विधम्।।
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्ट चिन्तकम्।।
वितथाभि निवेशश्च मानसम् त्रिविधम् स्मृतम्।।
अर्थात - ये दस प्रकार के पाप हैं - तीन कायिक, चार वाचिक और तीन मानसिक।
कायिक अर्थात शरीर के द्वारा होने वाले पाप। यानि बिना दिए किसी की वस्तु ले लेना, बिना यज्ञादि विधान की हिंसा करना एवं पराई स्त्री का साथ समागम। ये तीन शारीरिक पाप हैं।
किसी को कठोर और असत्य वचन बोलना, दूसरे की शिकायत अथवा निंदा करना एवं असंबद्ध प्रलाप करना। ये चार वाचिक पाप हैं, जो कि वाणी के द्वारा होते हैं।
दूसरों की धन-संपत्ति को हड़पने की इच्छा रखना, दूसरों को हानि पहुंचाने के विषय में सोचना एवं व्यर्थ की बातों में दुराग्रह करना।ये तीन मानसिक पाप हैं, जो कि हमारे मन के द्वारा होते हैं।
वर्ष भर में हमारे तन, मन और वाणी के द्वारा होने वाले ये दस प्रकार के पाप गंगा दशहरा के दिन गंगा में स्नान करने से नष्ट हो जाते हैं।इसीलिए समस्त सनातन धर्मावलंबी गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान के लिए जाते हैं।
राम चरित मानस में गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते हैं -
" गंग सकल मुद मंगल मूला, सब सुख करनि हरनि सब सूला"
अर्थात - मां गंगा समस्त आनन्द मंगलों की मूल हैं।वे सब सुखों को करने वाली और पीढ़ाओं को हरने वाली हैं।
इसलिए गंगा दशहरा का पर्व समूचे भारत वर्ष में अत्यंत श्रद्धा और धूमधाम के साथ मनाया जाता है।क्यों की गंगा दशहरा के दिन गंगा में स्नान करना अत्यधिक पुण्यदायी और कल्याणकारी बताया गया है।
मां गंगा में स्नान करते समय इस मंत्र का जाप अवश्य करना चाहिए "ॐ नमो गंगायै विश्वरुपिणी नारायणी नमो नमः" गंगा जी का यह मंत्र सबसे शक्तिशाली माना जाता है।इसीलिए गंगा में स्नान करते समय तीन बार गंगा में डुबकी लगाते हुए इस मंत्र का जाप करने से कई जन्मों के पाप धुल जाते हैं।स्नान के बाद गंगा जल से सूर्य देव को अर्घ्य देना चाहिए।इसके बाद मां गंगा और भगवान शिव की विधि-विधान से पूजा करनी चाहिए।इस दिन गंगा स्रोत का पाठ करना भी बहुत ही शुभ और अनंत गुणा फल देने वाला होता है।
शिव पुराण में भी कहा गया है, कि गंगा दशहरा वाले दिन गंगा स्नान करने से जीव के सभी तरह के पाप, रोग, दोष और विपत्तियों का नाश हो जाता है।साथ ही मां गंगा की कृपा से जीव को मनवांछित फल की प्राप्ति होती है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गंगा दशहरा पर गंगा स्नान के बाद दान-पुण्य का भी अत्यधिक महत्व बताया गया है।
हमारे धर्म ग्रंथों के गंगा अवतरण की एक विशेष कथा विस्तार से बताई गई है।कहा जाता है कि
भारतवर्ष के पौराणिक राजवंशों में सबसे प्रसिद्ध राजवंश इक्ष्वाकु कुल की छत्तीसवीं पीढ़ी में अयोध्या में सगर नामक महाप्रतापी, दयालु, धर्मात्मा और प्रजा हितैषी राजा हुए।गरल अर्थात विष के साथ पैदा होने के कारण वह सगर कहलाए।सगर बड़े होकर अत्यन्त बलशाली और पराक्रमी हुए।सगर ने कई राजाओं और सातों समुद्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया और चक्रवर्ती सम्राट बने।राजा सगर की दो पत्नियां थी केशिनी और सुमति।राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर पुत्र प्राप्ति की कामना से भगवान शंकर की कठोर तपस्या की।
तपस्या के फलस्वरूप सुमति के गर्भ से साठ हजार पुत्रों का जन्म हुआ और केशिनी के गर्भ से असमंजस नाम के एक पुत्र का जन्म हुआ। असमंजस के औरस से एक बहुत ही पराक्रमी और अत्यंत तेजस्वी अंशुमान का जन्म हुआ।
कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ मुनि की आज्ञा से राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। ताकि उनके साम्राज्य का और अधिक विस्तार किया जा सके।पौराणिक मान्यतानुसार प्राचीन काल में किए जाने वाले यज्ञानुष्ठानों में अश्वमेघ यज्ञ और राजसूय यज्ञ का सर्वाधिक महत्व माना जाता था। उन दिनों बड़े व प्रतापी और पराक्रमी सम्राट ही अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया करते थे।राजा सगर ने इस यज्ञ में निन्यान्ब्बे यज्ञ सम्पन्न होने पर एक बहुत ही अच्छे गुणों वाले घोड़े पर जयपत्र बाँध कर छोड़ दिया। उस पत्र पर लिखा था कि घोड़ा जिस जगह से गुजरेगा वह राज्य यज्ञ करने वाले राजा सगर के अधीन माना जाएगा। जो राजा या भूमि स्वामी इस आधीनता को स्वीकार नहीं करना चाहते, वे उस घोड़े को रोक कर युद्ध हेतु तैयार रहें।
यज्ञ वाले घोड़े को एक वर्ष पूरा होने पर वापस लौट आना था। इसके बाद ही यज्ञ की पूर्णाहुति सम्भव थी।महाराजा सगर ने अपने यज्ञ के श्यामकर्ण घोड़े की सुरक्षा के लिए हजारो वीर सैनिकों को घोडे़ के साथ भेज दिया।जिससे सगर का प्रताप चहुंओर फैलने लगा और उनके बल-पराक्रम और शौर्य की चर्चा तीनों लोकों में होने लगी।राजा सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर देवराज इन्द्र को यह चिंता होने लगी कि यदि सगर का यह अश्वमेघ यज्ञ सफल हो गया तो यज्ञ करने वाले को स्वर्गलोक का राजपाट मिल जाएगा।इससे भयभीत होकर देवराज इन्द्र ने यज्ञ के घोड़े को अपने मायाजाल के बल पर चुरा लिया। इतना ही नहीं उन्होंने इस घोड़े को पाताललोक में तपस्या कर रहे भगवान विष्णु के अंशावतार महामुनि कपिल देव के आश्रम में ले जाकर बांध दिया। उस समय कपिल देव गहन साधना में लीन थे।जिससे उन्हें इस घटना का पता ही नही लगा।
एक साल जब पूरा होने को आया तो घोड़े को लौटते न देखकर सगर चिन्तित हो उठे। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया।यज्ञ को घोड़े की खोज में निकले सगर के साठ हजार पुत्रों ने सारा भूमण्डल छान मारा फिर भी अश्वमेध का अश्व नहीं मिला।फिर वे सभी अश्व को खोजते-खोजते जब पाताल लोक में कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे तो वहाँ उन्होंने देखा कि सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल देव तपस्या कर रहे हैं और उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है।यज्ञ के अश्व को वहीँ पर बंधा और चरता हुआ देख सगर के पुत्र उन्हें देखकर चोर-चोर शब्द बोल कर तिरस्कृत, अपमानित करने लगे। इससे महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्योंही महर्षि ने अपने नेत्र खोले त्योंही सुमति के सभी साठ हजार पुत्र जलकर भस्म हो गए।
बहुत समय बीत जाने के बाद जब सगर के साठ हजार पुत्र नही लौटे तो, इससे चिन्तित राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को यज्ञ का घोड़ा ढूँढ़ कर लाने की आज्ञा दी। अश्व को खोजते हुए अंशुमान जब पाताल लोक में पहुंचे तो कपिल मुनि के आश्रम में साठ हजार प्रजाजनों की भस्म के पास यज्ञ के घोड़े को देखा।अपने पितृजनों को खोजते हुए जब वो आगे बढ़े तो वहां महात्मा गरुड़ ने उनके पूर्वजों के भस्म होने का सारा वृतान्त कह सुनाया। गरुड़ ने यह भी बताया कि यदि इन सबकी मुक्ति चाहते हो तो तुम्हें अपनी साधना से गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाना पड़ेगा।परंतु इस समय उचित यही होगा कि पहले तुम अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ।उसके बाद यह कार्य करना।
गरुड़ की आज्ञा मानकर अंशुमान ने महर्षि कपिल की स्तुति की।अंशुमान की स्तुति से प्रसन्न होकर कपिल मुनि ने वह यज्ञ-अश्व उसे दे दिया, जिससे सगर के यज्ञ की शेष क्रिया पूर्ण हुई। कपिल मुनि ने कहा, स्वर्ग की गंगा जब यहॉं आएगी तब भस्म हुए साठ हजार तुम्हारे पूर्वजों को मुक्ति मिलेगी । अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञमण्डप पर पहुँचकर सगर से ये सम्पूर्ण वृतांत सुनाया।
महर्षि कपिल की आज्ञानुसार अंशुमान ने स्वर्ग की गंगा को भारतभूमि में लाने की कामना से घोर तपस्या की। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन पर्यन्त तपस्या करके भी गंगा को पृथ्वीलोक में लाने में सफल न हो सके।अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप का संपूर्ण जीवन इसमें लग गया, परन्तु उन्हें इस कार्य में सफलता न मिली। सगर के वंश में अनेक राजा हुए सभी ने अपने साठ हज़ार पूर्वजों की भस्मी-पहाड़ को गंगा के प्रवाह के द्वारा पवित्र करने का पूरा प्रयत्न किया, किन्तु इस कार्य में वे सफल न हुए।तत्पश्चात दिलीप के पुत्र भगीरथ ने यह बीड़ा उठाया और गंगा को पृथ्वी लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की। तपस्या करते-करते कई वर्ष व्यतीत हो जाने पर उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भागीरथ से वरदान माँगने को कहा, तो भागीरथ ने अपने पूर्वजों और पृथ्वीलोक के कल्याण हेतु सुरसरी गंगा को पृथ्वी पर लाने का वर माँगा। वरदान में भागीरथ के गंगा माँगने पर ब्रह्मा ने कहा- हे राजन! तुम गंगा को पृथ्वी पर तो ले जाना चाहते हो , परन्तु स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरते समय गंगा के वेग को कौन सम्भालेगा ? क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को झेल पाएगी?’ ब्रह्माजी ने आगे यह भी कहा कि भूलोक में गंगा का भार और वेग को संभालने की शक्ति केवल भगवान शिव में है। इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग को सम्भालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए। महाराज भागीरथ ने वैसा ही किया और एक अंगूठे के बल पर खड़ा होकर भगवान शिव की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने गंगा को अपनी जटा में सम्भालने के लिए हामी भर दी। तब ब्रह्मा ने गंगा की धारा को अपने कमण्डल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएँ बांध लीं। गंगा देवलोक से छोड़ी गईं और शंकर जी की जटा में गिरते ही विलीन हो गईं। गंगा को भगवान शंकर की जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका। गंगा को ऐसा अहंकार था कि मैं शंकर की जटाओं को भेदकर समस्त भूमि को जलमग्न करके उसे सागर बना दूंगी और रसातल में चली जाऊंगी। पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगा शंकर जी की जटाओं में कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन उसे निकलने का कहीं मार्ग नही मिला।
अब महाराज भागीरथ को और भी अधिक चिन्ता हुई, और उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव से प्रार्थना की।भगीरथ के अनुनय-विनय करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिव की जटाओं से छूटकर गंगा हिमालय में ब्रह्मा के द्वारा निर्मित बिन्दुसर सरोवर में गिरी, जिसमें गिरते ही गंगा की सात धाराएँ हो गईं।जिनमें से तीन धाराएं अह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व दिशा की ओर तथा सुचक्षु, सीता और सिंधु पश्चिम दिशा की ओर चल पड़ी। और सातवीं धारा भागीरथ के पीछे-पीछे उनके पूर्वजों का उद्धार करने के लिए चलने लगीं।पुराणों का कथन है कि दिव्य रथ पर आरूढ़ राजा भागीरथ पृथ्वी तल पर जिस मार्ग से आगे बड़े, उसी मार्ग से उनके पीछे-पीछे गंगा की वह सातवीं धारा चल पड़ी।
पृथ्वी पर गंगा के आते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते से गंगा जा रही थीं, उसी मार्ग में जन्हु ऋषि का आश्रम बना हुआ था।जहां पर जन्हु ऋषि तपस्या में लीन थे।जैसे ही गंगा ने उनके आश्रम में प्रवेश किया,तो गंगा वे वेग से समूचा आश्रम नष्ट होने लगा और महर्षि जन्हु की साधना भंग होने लगी। तपस्या में बाधा उत्पन्न होने पर जन्हु ऋषि ने क्रोधित होकर गंगा की धारा को एक क्षण में पान कर लिया। तब भागीरथ के विनम्र आग्रह करने पर उन्होंने पुन: अपनी जांघ से गंगा को निकाल दिया। तभी से गंगा का एक नाम जाह्नवी पड़ गया। इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई मां गंगा ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर सगर के साठ हज़ार पुत्रों के भस्मावशेष को तारकर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्मा ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हज़ार पुत्रों के अमर होने का वरदान दिया। साथ ही यह भी कहा कि तुम्हारे ही नाम पर गंगा का नाम भागीरथी होगा। अब तुम अयोध्या में जाकर अपना राज-काज संभालो । ऐसा कहकर ब्रह्मा अन्तर्ध्यान हो गए। इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। भगीरथ लम्बी अवधी तक पुत्र लाभ प्राप्त कर तथा सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गए।युगों-युगों तक बहने वाली मां गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कठोर साधना की गाथा कहती हुई समस्त प्राणीमात्र को जीवन ही नहीं अपितु वरन मुक्ति का वरदान भी देती है।कुल मिलाकर गंगा दशहरा हमें प्रकृति की अद्भुत देन इन पवित्र नदियों की आवश्यकता और महत्ता का आभास कराने वाला विशेष पर्व है।Follow RNI News Channel on WhatsApp: https://whatsapp.com/channel/0029VaBPp7rK5cD6XB2
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