क्या है महाशिवरात्रि की कथा
फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। चतुर्दशी तिथि के स्वामी स्वयं भगवान शिव ही है। इस चराचर जगत के आदि और अंत शिव ही हैं।
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नई दिल्ली (आरएनआई) वैसे तो शिवरात्रि हर माह के कृष्ण पक्ष कि चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है, किन्तु फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। चतुर्दशी तिथि के स्वामी स्वयं भगवान शिव ही है। इस चराचर जगत के आदि और अंत शिव ही हैं। पृथ्वीलोक पर इनके श्रीरुद्ररूप की पूजा सर्वाधिक होती है। शिवपुराण में बताया गया है कि जाने अनजाने में भी जो मनुष्य और जीव महाशिवरात्रि का व्रत कर लेता है वह शिव कृपा का भागी बन जाता है महाशिवरात्रि व्रत में शिवरात्रि व्रत की कथा का पाठ करना बहुत ही शुभ फलदायी बताया गया है। इसलिए शिव भक्तों को इस दिन महाशिवरात्रि की इस कथा का पाठ जरूर करना चाहिए।
पूर्वकाल में गुरुद्रुह नामक एक शिकारी था। जानवरों का शिकार करके वह अपने परिवार को पालता था। भोजन प्रबंध के लिए शिकार खोजता हुआ वह बहुत दूर निकल गया। शाम हो गयी किन्तु उसे कोई शिकार नहीं मिला। वह तालाब के किनारे एक बेल के पेड़ पर चढ़कर रात्रि में जल पीने के लिए आने वाले जीवों का इंतज़ार करने लगा। बिल्ववृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था, शिकारी को उसका पता न चला। दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी बेल के पत्ते तोड़ता और नीचे फेंक देता, वो बिल्बपत्र शिवलिंग पर गिरते गए वह दिनभर कुछ खाया नहीं था भूख-प्यास से व्याकुल था इस प्रकार उसका व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गये।
रात्रि के प्रथम प्रहर में ही एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुंची। गुरुद्रुह ज्यों ही उसे धनुष-बाण से मारने चला हिरणी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं, शीघ्र ही प्रसव करूंगी तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी। शिकारी को दया आ गई उसने हिरणी को जाने दिया और फिर से बेलपत्र तोड़कर नीचे फेंकता गया। अतः अनजाने में ही वह प्रथम प्रहर के शिव पूजा का फलभागी हो गया।
कुछ ही देर बाद एक और हिरणी उधर से निकली। शिकारी उसे मारने ही वाला था, तभी हिरणी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, हे शिकारी ! मैं अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं, अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। शिकारी ने उसे भी जाने दिया। इस प्रकार वह फिर से बेलपत्र नीचे फेंकता रहा जो शिवलिंग पर गिरते रहे। उस समय रात्रि का दूसरा प्रहर था अतः अनजाने में इस प्रहर में भी उसके द्वारा बेलपत्र शिवलिंग पर चढ़ गए। कुछ देर बाद एक और हिरणी अपने बच्चों के साथ तालाब के किनारे जल पीने के लिए आयी, जैसे ही वह हिरनी को मारना चाहा हिरणी बोली, 'हे शिकारी ! मैं इन बच्चों को इनके पिता को सौंप कर लौट आऊंगी इस समय मुझे मत मारो। हिरणी का दीनस्वर सुनकर शिकारी को उस पर भी दया आ गई। उसने उस हिरनी को भी जाने दिया।
शिकार के अभाव में और भूख-प्यास से व्याकुल शिकारी अनजाने में ही बेल-वृक्ष पर बैठा बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। रातभर शिकारी के बेलपत्र नीचे फेंकते रहने से शिवलिंग पर अनगिनत बेलपत्र चढ़ गये। सुबह एक मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने ज्यों ही उसे मारना चाहा वह भी करुण स्वर में बोला हे शिकारी ! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों और बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मार दो ताकि मुझे उनके वियोग का दुःख न सहना पड़े मैं उन हिरणियों का पति हूँ । यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो, मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊँगा। शिकारी ने उस हिरण को भी जाने दिया। सुबह हो गई। उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर अनजाने में चढ़े बेलपत्र के फलस्वरूप शिकारी का हृदय अहिंसक हो गया। उसमें शिव के प्रति भक्तिभाव जागने लगा। थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया। जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता और प्रेम के प्रति समर्पण देखकर शिकारी ने सबको छोड़ दिया। इस प्रकार रात्रि के चारों प्रहर में हुई शिव पूजा से उसे शिवलोक कि प्राप्ति हुई।
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