कौमार्य अवस्था में ही शुरु कर देना चाहिए ठाकुरजी का भजन: इंद्रेशजी
कौमार्य अवस्था में ही शुरु कर देना चाहिए ठाकुरजी का भजन: इंद्रेशजी सामरसिंगा परिवार द्वारा आयोजित की जा रही श्रीमद् भागवत कथा का चतुर्थ दिवस।
गुना (आरएनआई) शहर में सामरसिंगा परिवार द्वारा आयोजित की जा रही श्रीमद् भागवत कथा के चतुर्थ दिवस वृंदावन से आए कथा व्यास पं. इंद्रेशजी उपाध्याय महाराज ने भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का वर्णन किया। साथ ही प्रभु भक्ति के सही समय और कलियुग के प्रभाव पर प्रकाश डाला।
इंद्रेशजी ने कहाकि भीष्म पितामह ने भगवान की मंगल स्तुति गाई और ठाकुरजी से निवेदन किया कि वह उनकी ललित गति देखना चाहते हैं। उन्होंने बताया कि भगवान की ललित गति अति सुंदर और मनमोहक है। इसे बाल्य अवस्था भी कह सकते हैं। इस प्रसंग के साथ इंद्रेशजी उपाध्याय ने बताया कि भगवान को माखन प्रिय है और माखन चोरी की लीला भगवान सिर्फ द्वापर में नहीं करते हैं बल्कि कलियुग में भी कोई मन के भाव से माखन खिलाए तो भगवान ग्रहण करते हैं। इसे समझाने के लिए इंद्रेशजी ने ठाकुरजी और कुंभनदास के प्रसंग का वर्णन किया। इंद्रेशजी ने बताया कि ठाकुरजी को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य यह निर्धारित करे कि सही अवस्था कौन सी है।
उन्होंने बताया कि व्यक्ति को कौमार्य (13 से 14 वर्ष) अवस्था में ही भगवान का भजन प्रारंभ कर देना चाहिए, इस आयु में भगवान का भजन शुरु करने से उनका स्नेह और भक्ति मिलने का प्रतिशत बढ़ जाता है। क्योंकि भक्ति, वैराग्य, ज्ञान की आयु निर्धारित है। अधिक आयु होने पर भगवान का अनुगम करेंगे तो स्वीकार नहीं होंगे। इसे विस्तार से बताते हुए इंद्रेशजी ने कहाकि जब आपकी इंद्रियां पूर्ण बलवान हों, आप अपनी इंद्रियों से कुछ भी कर सकते हैं, उपभोग कर सकते हैं, ऐसी आयु होने पर भजन मार्ग को अपनाने पर ठाकुरजी प्रसन्न होते हैं। कुल मिलाकर 25 वर्ष की आयु से पहले ठाकुरजी की शरणागति लेना ही चाहिए। इंद्रेशजी ने बताया कि कथा को जीवन में अनुकरण करने के लिए सुना जाता है। साधनों से ठाकुरजी को नहीं रिझाया जा सकता है, ठाकुरजी को भक्तिभाव और स्वभाव से रिझा सकते हैं। कथा के दौरान निरंतर सुमधुर भजनों की प्रस्तुति पर भी परिसर में मौजूद श्रद्धालु नाचते-गाते और भाव-विभोर नजर आए।
प्रेमभाव से दूर करें कलियुग का प्रभाव
इंद्रेशजी ने कथा के दौरान बताया कि कलियुग का प्रभाव 5 विपरीत परिस्थितियों में बढ़ता है। इनमें प्रमुखत: जुआ खेलना, क्रोध और पारिवारिक क्लेश शामिल हैं। परिवार में क्लेश की नौबत आ जाए तो समझ जाना चाहिए कि कलियुग का प्रभाव है। ऐसी स्थिति में हमें अपना स्वभाव जल की तरह शीतल करना चाहिए। अग्नि की तरह बर्ताव करने पर कलियुग और हावी हो जाता है। इंद्रेशजी ने बताया कि जुआ खेलना भी कलियुग के प्रभाव में बढ़ोत्तरी करने समान है। क्योंकि जुए में लक्ष्मी को दांव पर लगाया जाता है, जो सर्वथा अनुचित है।
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