कारपोरेट कंपनी बने राजनीतिक दल, हाईजैक जनतंत्र
अमित त्यागी, वरिष्ठ स्तंभकार
लोकतंत्र का वर्तमान स्वरूप कारपोरेट के अनुसार हो चुका है। अब दलों में जनभावना के अनुसार निर्णय नहीं होते हैं, बल्कि उच्च स्तर के आदेशों का पालन नीचे कराया जाता है। अब गांधी, लोहिया कोई नहीं बनना चाहता, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति तंत्र से जुड़ना चाहता है, क्योंकि तंत्र के माध्यम से वह सब कमाया जा सकता है, जो अपने पुरुषार्थ एवं मेहनत से प्राप्त नहीं हो सकता है।
तंत्र से सवाल पूछने वाले लोग भी तंत्र से जुड़ गए हैं और वह वहां स्थापित होकर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। वह लोक की पीड़ा समझते हैं, किंतु स्वहितों के कारण तंत्र के आगे नतमस्तक हैं। संपूर्ण राजनीतिक तंत्र पिशाची प्रवृत्ति का हो गया है। चुनावों में राजनीतिक तंत्र के द्वारा लोक का मखौल बनाया जाने लगा है। लगभग सभी दलों में प्रत्याशी का चयन जनभावना के अनुरूप न होकर हाईकमान की सरपरस्ती से होने लगा है, ऐसे में लोक का नेतृत्व करने वाले नेता अब नेपथ्य में चले गए हैं और हाईकमान की अनुकंपा वाले प्रसाद पाकर स्थापित होते जा रहे हैं। लोक का दुर्भाग्य है कि आज वह सिर्फ एक भीड़ बनकर रह गया है। इस भीड़ का एक भाग पक्ष में दिखता है और दूसरा विपक्ष में ।
लोकतंत्र पहले लीग मैचों की तरह था जिसमें चार-पांच दल आपस में प्रतिद्वंद्विता रखते हुए विजय प्राप्त करते थे । एक उत्सव की तरह चुनाव होते थे और दो तीन महीने जनता इसका रसपान करती थी। अब सीधे दो पक्षों के बीच फाइनल होने लगा है। इस नई व्यवस्था का कारण स्पष्ट है कि भारत को अमेरिकी तर्ज पर ढाला जा चुका है। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को प्रेरणास्रोत की तरह देखने वाली राजनीतिक व्यवस्था ने पिछले दो दशक में भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का उत्पीड़न करते हुए सुनियोजित तरीके से दो दलीय व्यवस्था स्थापित कर दी है। धन का मानक अन्य सभी सामाजिक मानकों पर अब सर्वोच्च है ।
एलेक्टोरल बांड भी इसी व्यवस्था से उपजा एक प्रारूप है। अब चुनावी चंदे का कारपोरेट नाम एलेक्टोरल बांड है। राजनीतिक दल अपने लूटतंत्र को छुपाते हुए जनता के बीच अपनी साख बचाने के लिए किसी भी स्तर पर अपने कार्यकर्ता को पुर्जे की तरह बदल देते हैं। लोकतंत्र में तंत्र लोक के लिए बनाया जाता है। हर चुनाव के बाद एक तंत्र बनता है। वह तंत्र उसी का शोषण करता है, जो उसका निर्माण करता है। तंत्र को बनाने वाला लोक हर बार ठगा जाता है। जैसा लोक चाहता है वैसा तंत्र को कार्य करना चाहिए। क्या ऐसा हो रहा है? शायद नहीं।
तंत्र को नियंत्रित करने के साधन भी सीमित होते चले जा रहे हैं। तंत्र लगातार लोक की राह में रोड़ा बन रहा है, जो व्यवस्था अंग्रेजों ने अपने राज करने के लिए बनाई थी वह आज भी बरकरार है। तंत्र से जुड़े लोग कभी नहीं चाहते हैं कि इस तंत्र को बदलने की कोई आवाज लोक से उठे । लोक से उठी हर आवाज को यह तंत्र या तो दबा देगा या किसी भी माध्यम से दबवा देगा। यह तंत्र मालिक बनकर लोक को मजदूर बना रहा है। आज खेत लोक के हैं, किंतु उसकी कीमत तंत्र तय करता है। जमीन पर कार्य कार्यकर्ता करते हैं, पर चुनावी टिकट आलाकमान तय करता है।
तंत्र से जुड़े लोगों द्वारा आपसी मिली भगत से आज देश में, जो लूट मची है, ऐसी लूटपाट करने वाले अंग्रेजों से तो हमने 1947 में मुक्ति पा ली थी, पर पिछले दो दशक में अमेरिकी तर्ज पर ढल चुके इस तंत्र में बैठे काले अंग्रेजों और अपने खुद के जयचंदों का हम क्या करें? अब इस राजनीतिक तंत्र में जो व्यक्ति तंत्र का हिस्सा बनता है वह रातों-रात करोड़पति बन जाता है। इसके बाद धन से राजनीतिक पद पा जाता है, जो लोक से जुड़ा रहता है, उसके हिस्से में सिर्फ संघर्ष आता है। उसका कार्य होता है। कि आलाकमान के कुकृत्यों को जनता के बीच सुकृत्य बनाकर प्रस्तुत करे।
देश में इस समय एक वैचारिक आंदोलन की आवश्यकता है। अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक बड़ा आंदोलन एक दशक पहले हुआ। उस व्यवस्था से निकले अरविंद केजरीवाल ने लोगों के अंदर आंदोलन के प्रति विश्वास भी समाप्त कर दिया। सामान्य जनमानस अब इंस्टाग्राम एवं अन्य सोशल मीडिया पर आनंदित हो रहा है। सब कुछ समझते हुए भी उसके पास विकल्पहीनता है। यह विकल्पहीनता भी उसी राजनीतिक तंत्र का एक प्रारूप है।
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