उपचार के बाद भी जान ले रहीं तीन वंशानुगत बीमारियां
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जानकारी दी है कि दुर्लभ रोगों को लेकर गठित केंद्रीय तकनीकी समिति और स्वास्थ्य महानिदेशक ने मौजूदा वैज्ञानिक साक्ष्यों का अध्ययन करने के बाद इन तीनों बीमारियों को राष्ट्रीय नीति में शामिल करने की सिफारिश की ताकि मरीजों को सीधा लाभ मिल सके।
नई दिल्ली। (आरएनआई) केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति के तहत बीमारियों की सूची में संशोधन किया है। सरकार ने तीन नई बीमारियों को इस सूची में शामिल किया है जो खानदानी होने के साथ साथ इलाज होने के बाद भी मरीजों की जान ले रही हैं। इनमें ग्लैंजमैन थ्रोम्बस्थेनिया, सिस्टिनोसिस और एंजियोएडेमा रोग शामिल हैं।
तीनों बीमारियां वंशानुगत विकार की श्रेणी में आती हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जानकारी दी है कि दुर्लभ रोगों को लेकर गठित केंद्रीय तकनीकी समिति और स्वास्थ्य महानिदेशक ने मौजूदा वैज्ञानिक साक्ष्यों का अध्ययन करने के बाद इन तीनों बीमारियों को राष्ट्रीय नीति में शामिल करने की सिफारिश की ताकि मरीजों को सीधा लाभ मिल सके। इन बीमारियों का उपचार उपलब्ध है लेकिन दवाएं या फिर सर्जरी की प्रक्रिया काफी महंगी होने के चलते अधिकांश मरीज इसका लाभ नहीं ले पा रहे हैं।
मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि ग्लैंजमैन थ्रोम्बस्थेनिया बीमारी में अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण के जरिए रोग से जीवन भर के लिए मुक्ति पाई जा सकती है। इस बीमारी में रोगी को रक्त का थक्का जमने की शिकायत होती है जो विशेष कोशिकाओं (प्लेटलेट्स) के खराब कार्य की विशेषता है। इसका एक लक्षण असामान्य रक्तस्राव भी है। उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय नीति में बीमारी को शामिल करने का लाभ यह है कि अब एक मरीज को इलाज के लिए 50 लाख रुपये तक की आर्थिक मदद उपलब्ध हो सकेगी।
सिस्टिनोसिस और एंजियोएडेमा रोग का उपचार भी मौजूद है लेकिन महंगी दवाओं के चलते रोगियों के लिए यह काफी मुश्किल भी है। उदाहरण के लिए सिस्टिनोसिस ग्रस्त रोगी को सिस्टेमिन नामक दवा दी जाती है जो भारत में उपलब्ध नहीं है। इसे विदेश से मंगाया जाता है और करीब साल भर की खुराक चार लाख रुपये की आती है। वंशानुगत एंजियोएडेमा उपचार की कीमत आम तौर पर काफी अधिक है।
अकेले दवाएं काफी महंगी हैं और इलाज के लिए जीवन भर की लागत 10 लाख रुपये या उससे अधिक हो सकती है। हालांकि देश में इन बीमारियों से ग्रस्त रोगियों की संख्या बेहद कम है लेकिन अधिकारियों का कहना है कि राष्ट्रीय नीति में इसका समावेश होने से मरीजों को काफी लाभ मिल सकता है।
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