आर्थिक संकट के बीच देश को गिरवी रखना पड़ा था सोना, मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बनकर आए और बाजी पलट दी
साल था 1991। देश गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा था। आयात की जरूरत को पूरा करने के लिए देश को बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था। ऐसे दौर में मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री का पद संभाला और अपने फैसलों से बाजी पलट दी। 24 जुलाई 1991 को अपने बजट भाषण में उन्होंने साफ-साफ कहा था कि पूरी दुनिया साफ-साफ सुन ले, भारत अब जाग गया है।
नई दिल्ली (आरएनआई) देश के आर्थिक उदारीकरण का चेहरा रहे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का गुरुवार 26 दिसंबर को निधन हो गया। उन्होंने 92 साल की उम्र में आखिरी सांस ली। आज शाम तबीयत बिगड़ने के बाद उन्हें दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती कराया गया था। मनमोहन सिंह 2004 से 2014 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। इससे पहले 1991 से 1996 के बीच वे देश के वित्त मंत्री रहे थे। देश का प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री रहने के अलावा डॉ मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद पर भी रहे। डॉ. मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में साल 1991 में ऐसे समय पर कार्यभार संभाला था जब देश गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा था। विदेशी मुद्रा भंडार में महज दो महीने का रिजर्व शेष बचा था। उस गंभीर परिस्थिति में देश को अपने आयात का खर्च चुकाने के लिए अपना सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा था। उस गंभीर दौर में डॉ. सिंह ने वित्त मंत्री के अपने कार्यकाल के दौरान 1991 में आर्थिक उदारीकरण शुरू किया और अर्थव्यवस्था को कठिनाइयों से निकालने में सफल रहे।
देश के लिए डॉक्टर मनमोहन सिंह का सबसे बड़ा योगदान वित्त मंत्री के रूप में आर्थिक सुधारों की शुरुआत करना है। इसके तहत सरकारी नियंत्रण को कम करना, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को बढ़ाना और स्ट्रक्चरल रिफॉर्म्स को लागू करने का फैसला लिया गया था। इन्हीं फैसलों के जरिए भारत की अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाजारों के लिए खोल दिया गया था। देश में लाइसेंस राज का खात्मा करने और मनरेगा व आधार जैसे महत्वपूर्ण पहल शुरू करने में भी डॉ मनमोहन सिंह का महत्वपूर्ण योगदान था। वर्ष 1991 में भारत का अंतरराष्ट्रीय व्यापार संतुलन निराशाजनक घाटे में था। 1991 में इसका विदेशी कर्ज 35 बिलियन डॉलर से दोगुना होकर 69 बिलियन डॉलर हो गया था। भारत के पास पैसा और समय दोनों बहुत कम थे। तब हमारे चालू खाते के घाटे से निपटने के लिए एक आपातकालीन उपाय के रूप में, भारतीय रिजर्व बैंक ने चालू खाते के घाटे को कम करने के लिए लगभग 400 मिलियन डॉलर जुटाने के लिए बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास अपनी सोने की हिस्सेदारी गिरवी रख दी। इसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधारों की एक शृंखला डॉक्टर सिंह ने शुरू की जिसे उन्होंने "मानवीय चेहरे के साथ सुधार" कहा। इन सुधारों से मनमोहन सिंह ने बाजी पलट दी और देश को आर्थिक संकट से निकालने में सफल रहे।
औद्योगिक नीति, 1991 की शुरुआत के साथ लाइसेंस राज को खत्म करने की प्रस्तावना लिखी गई। इस संकट से उबरने के लिए मनमोहन सिंह ने इस बजट में भारतीय बाजार को विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिए। इस कदम से सरकार को चंद महीनों में ही पहली सफलता मिली, जब दिसंबर 1991 में भारत सरकार विदेशों में गिरवी रखा सोना छुडवा कर आरबीआई को सौंपने में कामयाब रही। देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत 1991 में सिंह ने ही की थी। 24 जुलाई 1991 के बजट भाषण में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, "विक्टर ह्यूगो ने एक बार कहा था कि जिस बात का वक्त आ गया, समझो उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। ...दुनिया में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में भारत का उभरना ऐसा ही एक विचार है। पूरी दुनिया साफ-साफ सुन ले, भारत अब जाग गया है। हम इन हालात से उबरेंगे, हम जीतेंगे।" उन्होंने भारत को दुनिया के बाजार के लिए तो खोला ही, बल्कि निर्यात और आयात के नियमों को आसान बनाने में अहम बनाया। उन्हें देश में लाइसेंस राज खत्म करने का भी श्रेय जाता है। मनरेगा और आधार कार्ड की शुरुआत भी मनमोहन सिंह के पीएम रहते ही हुई।
26 सितंबर, 1932 को गाह गांव (पाकिस्तान का पंजाब प्रांत) में जन्मे सिंह ने क्रमशः 1952 और 1954 में पंजाब विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक और मास्टर डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने 1957 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अपना इकोनॉमिक ट्रिपोस पूरा किया। फिर 1962 में वो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में डी.फिल किया। डॉक्टर सिंह विदेश व्यापार मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार, वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार और वित्त मंत्रालय के सचिव के रूप में कार्य किया। उन्होंने 1976 से 1980 तक भारतीय रिजर्व बैंक के निदेशक और फिर 1982 से 1985 तक गवर्नर के रूप में कार्य किया। वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष भी रहे। अपने मृदुभाषी और विनम्र स्वभाव के लिए जाने जाने वाले मनमोहन सिंह अक्तूबर 1991 में पहली बार राज्यसभा के सदस्य बने थे। इसके बाद वे लगातार छह बार उच्च सदन के सदस्य बने। हालांकि वे कभी लोकसभा में नहीं पहुंच सके। 1999 में मनमोहन सिंह ने दक्षिण दिल्ली लोकसभा सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा जिसमें वे भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा से हार गए थे। ये उनके जीवन का पहला और आखिरी लोकसभा चुनाव था।
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