अवधूत उग्रचण्डेश्वर कपाली बाबा

अघोर परम्परा-दर्शन और सिध्दांत

Jul 19, 2024 - 19:30
Jul 19, 2024 - 19:50
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अवधूत उग्रचण्डेश्वर कपाली बाबा

कौन होते हैं अघोरी?

आधी रात के बाद का समय। घोर अंधकार का समय। जिस समय हम सभी गहरी नींद के आगोश में खोए रहते हैं, उस समय घोरी-अघोरी-तांत्रिक श्‍मशान में जाकर तंत्र-क्रियाएँ करते हैं। घोर साधनाएँ करते हैं। अघोरियों का नाम सुनते ही अमूमन लोगों के मन में डर बैठ जाता है। अघोरी की कल्पना की जाए तो शमशान में तंत्र क्रिया करने वाले किसी ऐसे साधू की तस्वीर जहन में उभरती है जिसकी वेशभूषा डरावनी होती है।

अघोर विद्या वास्तव में डरावनी नहीं है। उसका स्वरूप डरावना होता है। अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। और सरल बनना बड़ा ही कठिन है। सरल बनने के लिए ही अघोरी को कठिन साधना करनी पड़ती है।

आप तभी सरल बन सकते हैं जब आप अपने से घृणा को निकाल दें। इसलिए अघोर बनने की पहली शर्त यह है कि इसे अपने मन से घृणा को निकला देना होगा। अघोर क्रिया व्यक्ति को सहज बनाती है। मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईष्र्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाए। जो किसी में फ़र्क़ न करे। जो शमशान जैसी डरावनी और घृणित जगह पर भी उसी सहजता से रह ले जैसे लोग घरों में रहते हैं।

ऐसा माना जाता है की अघोरी मानव के मांस का सेवन भी करता है। ऐसा करने के पीछे यही तर्क है कि व्यक्ति के मन से घृणा निकल जाए। जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है। लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफ़न से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है।

अघोर विद्या भी व्यक्ति को हर चीज़ के प्रति समान भाव रखने की शिक्षा देती है। अघोरी तंत्र को बुरा समझने वाले शायद यह नहीं जानते हैं कि इस विद्या में लोक कल्याण की भावना है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है।

अघोर विद्या के जानकारों का मानना है कि जो असली अघोरी होते हैं वे कभी आम दुनिया में सक्रिय भूमिका नहीं रखते, वे केवल अपनी साधना में ही व्यस्त रहते हुये जगत कल्याण का कार्य करते रहते है। हां, कई बार ऐसा होता है कि अघोरियों के वेश में कोई ढोंगी, आपको ठग सकता है। अघोरियों की पहचान ही यही है कि वे किसी से कुछ मांगते नहीं है।

अघोरपंथ

साधना की एक रहस्यमयी शाखा है अघोरपंथ। उनका अपना विधान है, अपनी अलग विधि है, अपना अलग अंदाज है जीवन को जीने का। अघोरपंथी साधक अघोरी कहलाते हैं। खाने-पीने में किसी तरह का कोई परहेज नहीं। अघोरी लोग गाय का मांस छोड़ कर बाकी सभी चीजों का भक्षण करते हैं।

अघोरपंथ में शायद श्मशान साधना का विशेष महत्व है, इसीलिए अघोरी शमशान वास करना ही पंसद करते हैं। श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है। श्मशान में साधारण मानव जाता ही नहीं, इसीलिए साधना में विध्न पड़ने का कोई प्रश्न नहीं।

अघोर पंथ की उत्पत्ति और इतिहास

अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता है। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं। अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया।भगवान शिव द्वारा प्रतिपादित अघोर पंथ की सम्यक साधना करने के लिये अनेक देवताओं ने भी अघोर उपासना किया है।नौ देवी और देवताओं ने अघोर उपसना कर औघड़ मत को आगे बढ़ाया।अघोर इतिहास मे इन्हे नौ नाथ के रूप में जाना जाता है।नौ नाथो के बारे मे कहा जाता है कि प्रथम नाथ के रूप मे भगवान परमात्म स्वरूप शिव आदिनाथके रुप मे,द्वितीय मां पार्वती उदयनाथ के रूप मे,तृतीय भगवान ब्रम्हा बाबा सत्यनाथ के रूप मे,चतुर्थ भगवान विष्णु सन्तोष नाथ के रूप में, पंचम भगवान चन्द्रदेव चौरंगीनाथ के रूप मे,षष्ठ भगवान शेषनाग अचल अचम्भेनाथ,सप्तम श्री गणेशजी गजबेलि गजकन्थणनाथ,अष्टम मायास्वारूप बाबा मत्स्येन्द्रनाथ, नवम नाथ के रुप मे स्वंय भगवान शिव गुरू गोरखनाथ जी अघोर परम्परा मे उपासना क्रम को आगे बढ़ा पंथ का विस्तार किया।वैसे अघोर शास्त्रों के जानकारों के अनुसार भगवान शिव ने शिव सूत्र के सामयिक प्रतिपादन एंव दीक्षा का अधिकार स्वंय अपने अंशावतार महर्षि दुर्वासा को दिया।जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण कश्मीरी शैव दर्शन एंव प्रत्यविज्ञा दर्शन के उन्नायक सम्पादक महामहेश्वर आचार्य अभिनव गुप्त स्वयं है।जिन्होंने सुप्रसिद्ध भैरव स्तोत्र का गायन करते हुये श्रीनगर के समीप स्थित गांदरबल की भैरव गुफा मे प्रवेश कर शिष्यों सहित साशरीर शिवलोक को प्राप्त किया।

आदिनाथ : इनका उद्भव साधना व तपस्थली कैलाश है।

माता उदयनाथ : इनका उद्भव, साधना व तपस्थली कामाख्या है।

बाबा सत्यनाथ : इनका उद्भव,साधना व तपस्थान पुष्कर राजस्थान है।बाबा सत्यनाथ उप्र के सुलतानपुर जिला अन्तर्गत कादीपुर तहसील के अल्देमऊ नूरपुर गांव मे गोमती और चन्द्रभागा संगम के तट पर स्थित महाश्मशान मे भी साधना किया और मूलगद्दी यही है।इसके अतिरिक्त बाबा सत्यनाथ की तपस्थली उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी स्थित स्वर्ग द्वार महाश्मशान मे भी विद्यमान है।यहा एक विशाल मठ आज भी मौजूद है।

सन्तोषनाथ : इनका उद्भव साधना व तपस्थान द्वारिका गुजरात है।

चौरंगीनाथ : इनका उद्भव,साधना व तपस्थान प्रभाषक्षेत्र सोमनाथ गुजरात है।

अचल अचम्भेनाथ : इनका उद्भव,साधना व तपस्थान काश्मीर प्रांत के अनन्तनाग जनपद के शेषनाग मे है।

गजबेलि गजकन्थणनाथ : इनका उद्भव, साधना व तपस्थान महाराष्ट्र है।

मत्स्येन्द्रनाथ : इनका उद्भव, साधना व तपस्थान कान्धार अफगानिस्तान है।

गोरखनाथ : इनका मूल स्थान पंजाब माना जाता है सम्प्रति देश मे विभिन्न स्थानों पर साधना किया मूलगद्दी उप्र प्रान्त के गोरखपुर जनपद मे है।

अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।

प्रत्येक मानव जन्मजात रूप से अघोर अर्थात सहज होता है। बालक ज्यों ज्यों बड़ा होता है त्यों वह अंतर करना सीख जाता है और बाद में उसके अंदर विभिन्न बुराइयां और असहजताएं घर कर लेती हैं और वह अपने मूल प्रकृति यानी अघोर रूप में नहीं रह जाता। अघोर साधना के द्वारा पुनः अपने सहज और मूल रूप में आ सकते हैं। इस मूल रूप का ज्ञान होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है।

अघोर संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं और नर मुंडों को पात्र के तौर पर खप्पर के रूप मे प्रयोग भी करते हैं। चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि सामान्य कार्य हैं। अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान होते हैं।

कौन होते हैं अघोरी?

अघोरियों के बारे में मान्यता है कि बड़े ही जिद्दी होते हैं, अगर किसी से कुछ मागेंगे, तो लेकर ही जायेगे। क्रोधित हो जायेंगे तो अपना तांडव दिखाये बिना जायेंगे नहीं। एक अघोरी बाबा की आंखे लाल सुर्ख होती हैं मानों आंखों में प्रचंड क्रोध समाया हुआ हो। आंखों में जितना क्रोध दिखाई देता हैं ।किन्तु उनकी बातों में उतनी ह शीतलता होती हैं जैसे आग और पानी का दुर्लभ मेल हो।

अघोरी साधना

अघोरी श्‍मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं - श्‍मशान साधना, शिव साधना, शव साधना। ऐसी साधनाएँ अक्सर काशी के श्मशान, तारापीठ के श्‍मशान, कामाख्या पीठ के श्‍मशान, त्र्यम्‍बकेश्वर और उज्जैन के चक्रतीर्थ के श्‍मशान में होती है।

शिव साधना में शव के ऊपर पैर रखकर खड़े रहकर साधना की जाती है। इस साधना का मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पाँव है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाया जाता है। शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है श्‍मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है। इस साधना में मुर्दे की जगह शवपीठ की पूजा की जाती है। उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है। यहाँ प्रसाद के रूप में भी मांस-मंदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है।

अघोरपन्थ की शाखाएँ

अघोरपन्थ की विभिन्न शाखाएँ प्रसिद्ध हैं जिन्हें कापालिक ,कालमुख, कौल,सरभंगी और ब्रम्हनिष्ठ है।समान्यतः इन सभी प्रकार के साधकों को औघड़ कहा जाते है।

अघोरपंथ के प्रमुख औघड़/साधक

कापालिक परम्परा के प्रमुख आचार्य वशिष्ट, नन्दीश्वर, भगवान परशुराम, दधीचि, कार्तवीर्य अर्जुन और रावण,महायोगी जालन्धर नाथ,बाबा कीनाराम, अवधूत भगवान राम,अवधूत उग्रचण्डेश्वर कपालीबाबा प्रमुख है।

कालमुख परम्परा के प्रमुख आचार्य च्यवन, कश्यप,अत्रि,वीरभद्र और गजानन स्वामी,हसुआ के नागाबाबा, तैलंग स्वामी हैं।

कौल परम्परा के प्रमुख आचार्य विश्वामित्र,महायोगी मत्स्येंद्रनाथ, महायोगी कणीफनाथ,मैत्रेयी,मंडन मिश्र की पत्नी सरस्वती और व्यंकटेश भट्ट, अभिनव गुप्त है।

संरभगी परम्परा के प्रमुख आचार्य सरभंग ऋषि, ऋंगी ऋषि है।

ब्रम्हनिष्ठ इस परम्परा का प्रसार मूलतः दक्षिण भारत में है इसके प्रमुख आचार्य अगत्स्य,पाराशर,श्रीधर स्वामी, उड़ियाबाबा,कुमार स्वामी,श्रीधर स्वामी द्वितीय है।

कापालिक परम्परा के बाबा कालूराम जो किनाराम बाबा के गुरु थे। कुछ लोग इस पन्थ को गुरु गोरखनाथ के भी पहले से प्रचलित बतलाते हैं और इसका सम्बन्ध शैव मत के पाशुपत अथवा कालमुख सम्प्रदाय के साथ जोड़ते हैं।

बाबा किनाराम अघोरी वर्तमान बनारस से अलग हुये चन्दौली ज़िले के रामगढ़ गाँव में उत्पन्न हुए थे और बाल्यकाल से ही विरक्त भाव में रहते थे। बाबा किनाराम ने 'विवेकसार' , 'गीतावली', 'रामगीता' आदि की रचना की। इनमें से प्रथम को इन्होंने उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे बैठकर लिखा था। इनका देहान्त संवत 1826 में हुआ। 'घुरे' नाम की शाखा के प्रचारक्षेत्र का पता नहीं चलता, किन्तु सरभंगी शाखा का अस्तित्व विशेषकर चम्पारन ज़िले में दिखता है।

विवेकसार ग्रन्थ

'विवेकसार' इस पन्थ का एक प्रमुख ग्रन्थ है, जिसमें बाबा किनाराम ने 'आत्माराम' की वन्दना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है। उसके अनुसार सत्य पुरुष व निरंजन है, जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्त रूपों में वर्तमान है और जिसका अस्तित्व सहज रूप है। ग्रन्थ में उन अंगों का भी वर्णन है, जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टि रहस्य, काया परिचय, पिंड ब्रह्मांड, अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है।

अगले तीन में योगसाधना, निरालंब की स्थिति, आत्मविचार, सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है तथा शेष दो में सम्पूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया, विवेक आदि के अनुसार चलने के विषय में कहा गया है। बाबा किनाराम ने इस पन्थ के प्रचारार्थ रामगढ़, देवल, हरिहरपुर तथा कृमिकुंड पर क्रमश: चार मठों की स्थापना की। जिनमें से चौथा प्रधान केन्द्र है।

अनुयायी

इस पन्थ को साधारणत: 'औघड़पन्थ' कहते हैं। इसके अनुयायियों में सभी जाति के लोग, मुस्लिम तक हैं। विलियम क्रुक ने अघोरपन्थ के सर्वप्रथम प्रचलित होने का स्थान राजपूताना के आबू पर्वत को बतलाया है, किन्तु इसके प्रचार का पता नेपाल, गुजरात एवं समरकन्द जैसे दूर स्थानों तक भी चलता है और इसके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं है।

भारत के कुछ प्रमुख अघोर स्थल

काशी : वाराणसी या काशी को भारत के सबसे प्रमुख अघोर स्थान के तौर पर मानते हैं। भगवान शिव की स्वयं की नगरी होने के कारण यहां विभिन्न अघोर साधकों ने तपस्या भी की है। यहां बाबा कीनाराम का स्थल एक महत्वपूर्ण तीर्थ भी है। काशी के अतिरिक्त गुजरात के जूनागढ़ का गिरनार पर्वत भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। जूनागढ़ को अवधूत भगवान दत्तात्रेय के तपस्या स्थल के रूप में जानते हैं।

कामरूप प्रदेश : असम, जिसे कभी कामरूप प्रदेश के नाम से भी जाना जाता था,यह एक स्थान है जहां रात के अंधेरे में शमशाम भूमि पर तंत्र साधना कर पारलौकिक शक्तियों का आह्वान किया जाता है। यहां होने वाली तंत्र साधनाएं पूरे भारत में प्रचलित हैं। यूं तो अभी भी कुछ समुदायों में मातृ सत्तात्मक व्यवस्था चलती है लेकिन कामरूप में इस व्यवस्था की महिलाएं तंत्र विद्या में बेहद निपुण हुआ करती थीं।कामरूप से जुड़ी एक कथा स्थानीय लोगों में बेहद लोकप्रिय है, कहा जाता है कि एक बार बाबा आदिनाथ, जिन्हें कुछ लोग भगवान शंकर का भी अवतार मानते थे, उनके शिष्य मत्स्येंद्रनाथ कामरूप भ्रमण के लिए गए थे। वह वहां कामरूप की रानी के महल में बतौर अतिथि ठहरे थे। कामरूप की रानी खुद भी तंत्र साधना में सिद्ध मानी जाती थीं।मत्स्येन्द्र नाथ रानी के साथ लता साधना में इतना लीन हो गए कि सब कुछ भूल गए। उन्हें वापस अपने आश्रम जाना था वह उसे भी भूल गए। उन्हें लेने के लिए बाबा गोरखनाथ को कामरूप आना पड़ा. लेकिन तंत्र साधना में लीन मत्स्येन्द्र नाथ को हिला पाने में गोरखनाथ को भी कई पापड़ बेलने पड़े।

अघोर पंथियों के 10 तांत्रिक पीठ

तारापीठ : तारापीठ को तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सबमें समान रूप से प्रमुख और पूजनीय माना गया है। इस स्थान पर सती पार्वती की आंखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी थीं इसलिए यह शक्तिपीठ बन गया।

हिंगलाज धाम : हिंगलाज धाम अघोर पंथ के प्रमुख स्थलों में शामिल है। हिंगलाज धाम वर्तमान में विभाजित भारत के हिस्से पाकिस्तान के बलूचिस्तान राज्य में स्थित है। यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से 120 किलोमीटर और समुद्र से 20 किलोमीटर तथा कराची नगर के उत्तर-पश्चिम में 125 किलोमीटर की दूरी पर हिंगोल नदी के किनारे स्थित है। माता के 52 शक्तिपीठों में इस पीठ को भी गिना जाता है। यहां हिंगलाज स्थल पर सती का सिरोभाग कट कर गिरा था। यह अचल मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को मरुतीर्थ भी कहा जाता है। इसे भावसार क्षत्रियों की कुलदेवी माना जाता है।

विंध्याचल : विंध्याचल की पर्वत श्रृंखला जगप्रसिद्ध है। यहां पर विंध्यवासिनी माता का एक प्रसिद्ध मंदिर है। इस स्थल में तीन मुख्य मंदिर हैं- विंध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजा। इन मंदिरों की स्थिति त्रिकोण यंत्रवत है। इनकी त्रिकोण परिक्रमा भी की जाती है। कहा जाता है कि महिषासुर वध के पश्चात माता दुर्गा इसी स्थान पर निवास हेतु ठहर गई थीं। भगवान राम ने यहां तप किया था और वे अपनी पत्नी सीता के साथ यहां आए थे। इस पर्वत में अनेक गुफाएं हैं जिनमें रहकर साधक साधना करते हैं। आज भी अनेक साधक, सिद्ध, महात्मा, अवधूत, कापालिक आदि से यहां भेंट हो सकती है।

चित्रकूट : अघोर पंथ के अन्यतम आचार्य दत्तात्रेय की जन्मस्थली चित्रकूट सभी के लिए तीर्थस्थल है। औघड़ों की कीनारामी परंपरा की उ‍त्पत्ति यहीं से मानी गई है। यहीं पर मां अनुसूया का आश्रम और सिद्ध अघोराचार्य शरभंग का आश्रम भी है। यहां का स्फटिक शिला नामक महाश्मशान अघोरपंथियों का प्रमुख स्थल है।

कालीमठ : हिमालय की तराइयों में नैनीताल से आगे गुप्तकाशी से भी ऊपर कालीमठ नामक एक अघोर स्थल है। यहां अनेक साधक रहते हैं। यहां से 5,000 हजार फीट ऊपर एक पहाड़ी पर काल शिला नामक स्थल है, जहां पहुंचना बहुत ही मुश्किल है। कालशिला में भी अघोरियों का वास है। माना जाता है कि कालीमठ में भगवान राम ने एक बहुत बड़ा खड्ग स्थापित किया है।

जगन्नाथ पुरी : जगतप्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर और विमला देवी मंदिर, जहां सती का पाद खंड गिरा था, के बीच में एक चक्र साधना वेदी स्थित है जिसे वशिष्ठ कहते हैं। इसके अलावा पुरी का स्वर्गद्वार श्मशान एक पावन अघोर स्थल है। इस श्मशान के पार्श्व में मां तारा मंदिर के खंडहर में ऋषि वशिष्ठ के साथ अनेक साधकों की चक्रार्चन करती हुई प्रतिमाएं स्थापित हैं। जगन्नाथ मंदिर में भी श्रीकृष्णजी को शुभ भैरवी चक्र में साधना करते दिखलाया गया है।

मदुरई : दक्षिण भारत में औघड़ों का कपालेश्वर का मंदिर है। आश्रम के प्रांगण में एक अघोराचार्य की मुख्य समाधि है और भी समाधियां हैं। मंदिर में कपालेश्वर की पूजा औघड़ विधि-विधान से की जाती है।

कोलकाता का काली मंदिर : रामकृष्ण परमहंस की आराध्या देवी मां कालिका का कोलकाता में विश्वप्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता के मध्यक्षेत्र मे स्थित कालीघाट श्मशान मे मां काली प्राचीन मन्दिर है। इस स्थान पर सती देह की दाहिने पैर की 4 अंगुलियां गिरी थीं इसलिए यह सती के 52 शक्तिपीठों में शामिल है।तांत्रिकों अघोरियों के साधना का प्रमुख केंद्र है।

नेपाल : नेपाल में तराई के इलाके में कई गुप्त औघड़ स्थान पुराने काल से ही स्थित हैं। अघोरेश्वर भगवान राम के शिष्य बाबा सिंह शावक रामजी ने काठमांडू में अघोर कुटी स्थापित की है। उन्होंने तथा उनके बाद बाबा मंगलधन रामजी ने समाजसेवा को नया दिया है। कीनारामी परंपरा के इस आश्रम को नेपाल में बड़ी ही श्रद्धा से देखा जाता है।

अफगानिस्तान : अफगानिस्तान के पूर्व शासक शाह जहीर शाह के पूर्वजों ने काबुल शहर के मध्य भाग में कई एकड़ में फैला जमीन का एक टुकड़ा कीनारामी परंपरा के संतों को दान में दिया था। इसी जमीन पर आश्रम, बाग आदि निर्मित हैं। औघड़ रतनलालजी यहां पीर के रूप में आदर पाते हैं। उनकी समाधि तथा अन्य अनेक औघड़ों की समाधियां इस स्थल पर आज भी श्रद्धा-नमन के लिए स्थित है।

इस प्रकार अघोरी व उनके रहस्यमयी दुनिया को जानने समझने के लिये अपने भीतर महागुरू भगवान शिव,भगवान दत्तात्रेय की उपसना पद्धति विकसित कर विषय मे विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

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