अब धान-गेहूं और आलू में भी मिल रहा 'धीमा जहर'
राज्य की पैदावार पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। अब भूगर्भीय जल का आर्सेनिक सिंचाई के माध्यम से फसलों और उनके पैदावार तक पहुंचने लगा है जो बेहद खतरे का संकेत है। इस तरह की समस्या प्रदेश में गंगा के दोनों किनारे स्थिति जिले एवं हिमालय के तराई वाले इलाके में मिली है। आर्सेनिक की समस्या से वर्तमान में राज्य के 21 जिले प्रभावित हैं।
पटना (आरएनआई) महावीर कैंसर शोध संस्थान की ओर से किए गए शोध में पाया गया कि प्रदेश में धान, गेहूं एवं आलू में आर्सेनिक की मात्रा मानक से ज्यादा पाए गए हैं। धान में तय मानक 200 माइक्रोग्राम प्रति किलोग्राम आर्सेनिक होना चाहिए, जबकि इसकी मात्रा 821 मिली है।
इसी गेहूं में 100 माइक्रोग्राम प्रति किलोग्राम के बजाय 775 तो आलू में 500 माइक्रोग्राम प्रति किलोग्राम की जगह 1450 मात्रा मिली है। राज्य के पानी में 1,906 माइक्रोग्राम प्रति लीटर आर्सेनिक की मात्रा पाई गई है। पीने योग्य पानी में मात्र 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर आर्सेनिक की मात्रा होनी चाहिए।
महावीर कैंसर शोध संस्थान की ओर से किए गए रिसर्च में कई विदेशी विश्वविद्यालयों एवं शोध संस्थानों की मदद ली गई है। इस शोध को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जारी कर दिया गया है, जिसे दुनिया के कई संस्थानों ने स्वीकार किया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि प्रदेश में तीन स्तर पर पानी मिलता है। पानी का पहला स्तर 50 से 60 फीट नीचे पाया जाता है। वहीं, दूसरा 150 फीट के आसपास और तीसरा 275 फीट नीचे पाया जाता है। पानी के पहले स्तर में काफी मात्रा में आर्सेनिक पाया जाता है।
दूसरे स्तर पर थोड़ी कम आर्सेनिक की मात्रा पाई जाती है। वहीं, पानी का तीसरा स्तर शुद्ध है उसमें आर्सेनिक की मात्रा नहीं है। इसलिए विशेषज्ञों की सलाह है कि हमेशा 275 फीट नीचे के भूगर्भीय जल का उपयोग करें।
नदी एवं तालाब के पानी में आर्सेनिक की मात्रा नहीं होती है। इसके पानी को शुद्ध कर उपयोग किया जा सकता है। नदी एवं तालाब के पानी का सिंचाई के लिए उपयोग किया जाए तो उसका फसलों पर भी दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।
कई फसलों पर आर्सेनिक के प्रभाव की चल रही जांच भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आइसीएआर), पूर्वी क्षेत्र के निदेशक डॉ. अनूप दास का कहना कि प्रदेश में फसलों पर आर्सेनिक के प्रभाव की जांच चल रही है। जल्द ही उसके परिणाम आएंगे। उसपर विज्ञानी अभी काम कर रहे हैं। आइसीएआर अभी तक कोई अंतिम रिपोर्ट पर नहीं पहुंचा है।
हाथों का काला होना आर्सेनिक का पहला लक्षण डॉ. घोष का कहना है कि जिन इलाकों के पानी में आर्सेनिक की मात्रा मानकों से ज्यादा होती है। वहां का पानी पीने से सबसे पहले त्वचा पर प्रभाव पड़ता है। त्वचा में धीरे-धीरे बदलाव होने लगता है। कुछ दिनों बाद त्वचा काली पड़ने लगती है।
अगर समय पर उपचार नहीं किया गया तो बाद में स्किन कैंसर होने की आशंका पैदा हो जाती है। वैसे आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में गाल ब्लाडर का कैंसर काफी देखा जाता है।
पटना, बक्सर, भोजपुर, सारण, वैशाली, समस्तीपुर, बेगूसराय, मुंगेर, खगड़िया, लखीसराय, कटिहार, भागलपुर, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, शिवहर, सीतामढ़ी, मधुबनी, किशनगंज, सुपौल, अररिया, सहरसा
आर्सेनिक को सामान्य भाषा में धीमा जहर कहा जाता है। यह पानी में घुलनशील रसायनिक तत्व है। मुख्यत: यह भूगर्भीय जल में पाया जाता है। पेयजल के माध्यम से मानव शरीर तक पहुंचता है, जो कैंसर जैसे बीमारी पैदा करता है।
महावीर कैंसर शोध संस्थान के अध्यक्ष प्रो. अशोक कुमार घोष कहते हैं, राज्य के पानी में आर्सेनिक की मात्रा एवं उसके फसलों पर प्रभाव को लेकर वर्ष 2019 में शोध शुरू किया गया था। इस प्रोजेक्ट पर 2023 तक शोध किया गया।
इसमें पटना, भोजपुर, समस्तीपुर एवं भागलपुर से नमूनों को लेकर जांच की गई, जिसमें मानक से ज्यादा आर्सेनिक की मात्रा पाई गई। उसी तरह राज्य के अन्य जिलों में भी इसका प्रभाव पड़ने की आशंका जताई जा रही है। यह सेहत के लिए काफी खतरनाक है।
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