अपनों से ही डरी सहमी हिंदी-सुमन पांडे
आजादी के पचहत्तर वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम अपनी वाणी को अंग्रेजों की दासता से बाहर नहीं निकाल पाए हैं। कितने दुर्भाग्य का विषय है कि अंग्रेज नौकरशाह की भाषा को हम अपने सामाजिक स्तर की पहचान बना चुके हैं |वे अंग्रेजी की जानकारी और बच्चों को कथित अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाना अपनी शान और स्तर का मानक मान चुके हैं । चूकी हमारी शिक्षा मैकाले के मकड़ जाल से बाहर नहीं आ सकी है इसलिए आजाद भारत के नौकरशाह अंग्रेजी को अपने कंठ का हार मान बैठे हैं। जिससे वह अपने को शेष भारतीयों से श्रेष्ठ मानने की मिथ्या मानसिकता बनाए रहते हैं| यहां पर बात अंग्रेजी भाषा या साहित्य की नहीं है ,यहां पर बात है अंग्रेजी का लबादा ओढ़ कर समाज को बांटने की| वास्तविकता तो यह है कि हिंदी के वकालत करने वाले लोगो की जिन पर अंग्रेजियत की परत चढ़ी है। तमाम ऐसे लोग मिल जाएंगे जो मंचो पर हिंदी का गाना गाते हैं किंतु उनके अंतरंग गुलामी की भाषा का भक्त है ।अपने बच्चों को सबसे पहले वही अंग्रेजी स्कूलों और अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने की बात करते हैं। तकनीकी और विज्ञान विषयों की ओट लेकर अंग्रेजी की वकालत करना आम बात है। मैं ऐसा नहीं कह रही हूं कि अंग्रेजी भाषा में कोई कमी है अंग्रेजीयत ना लाएं। तमाम सरकारी विभाग जिसमें न्याय विभाग भी शामिल है हिंदी से परहेज करता है। यही नहीं शीर्ष पदों पर आसीन तमाम अधिकारी बात तो हिंदुस्तान की करते हैं किंतु उनकी जवान और समझ सिर्फ गुलामी की भाषा तक सीमित है। एक और तीखी बात है कि विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक हिंदी के अध्यापक और प्रवक्ता अपने को दीन हीन मानते हैं।उनसे यदि कुछ पूछा जाए या राय ली जाए तो उनका कहना होता है कि मैं तो हिंदी का मास्टर हूं मुझ में इतनी योग्यता कहां ?अपनी ऐसी स्थिति के केवल खुद जिम्मेदार हैं । फिलहाल हिंदी दिवसों पर की जाने वाली हिंदी की वकालत तब तक औचित्यहीन रहेगी जब तक हम साफ मन से हिंदी को स्वीकार नहीं करते हैं। हमारे अविकसित रहने का सबसे बड़ा कारण है कि हम उसी को प्रतिभावान स्वीकार करते हैं जो अंग्रेजी भाषा को जवान से निकलता है। परिणाम स्वरुप कितनी ही प्रतिभाएं समय से पूर्व ही नष्ट हो जाती हैं। आवश्यकता है कि हम भी रूस, चीन ,जापान और फ्रांस की तरह अपनी भाषा को सम्मान दे। और जिस दिन हम में इतनी अकल आ जाएगी उसी दिन हम भी विकसित देशों की श्रेणी में होंगे अन्यथा गुलामी और उधार की वाणी में हम देश तथा संस्कृति के विकास की बात भूल जाएंगे।
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