2004 बनाम 2024: तब क्षत्रपों और हिंदीपट्टी ने लिखी थी नई सियासी पटकथा; अब ये बेल्ट ही BJP की सबसे बड़ी ताकत
2004 में बाजी पलटने में माकपा महासचिव रहे हरकिशन सिंह सुरजीत की भूमिका अहम थी। उन्होंने विपक्षी एकता का तानाबाना बुना। वाम मोर्चा त्रिपुरा, केरल, प. बंगाल में यूपीए-एनडीए दोनों के खिलाफ लड़ी थी। जबकि, पंजाब, तमिलनाडु सहित कुछ राज्यों में पार्टी कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए के साथ थी। चुनाव बाद सुरजीत ने ही सपा, बसपा को यूपीए को समर्थन देने के लिए राजी किया था।
नई दिल्ली (आरएनआई) विपक्षी गठबंधन भाजपा के 400 पार के नारे को अतिआत्मविश्वास बताते हुए दावा कर रहा है कि इस बार के नतीजे भी 2004 की तरह विस्मयकारी होंगे। हालांकि तब और अब की राजनीतिक परिस्थितियों में बड़ा अंतर है। विपक्ष के पास न तो अब हरकिशन सिंह सुरजीत जैसा करिश्माई चेहरा है और न ही नई पटकथा लिखने वाले क्षेत्रीय दल पहले की तरह मजबूत स्थिति में हैं।
साल 2004 में इंडिया शाइनिंग का नारा देकर चुनाव में उतरी भाजपा को न सिर्फ 44 सीटों का नुकसान हुआ, बल्कि सत्ता से भी बाहर हो गई। कांग्रेस को 31 सीटों का लाभ हुआ। उस चुनाव में वाम मोर्चा, सपा, बसपा, राजद और एनसीपी जैसे दलों ने बाजी पलटी थी। अपने-अपने राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगियों पर बड़ी बढ़त हासिल कर इन दलों से जुड़े क्षत्रपों ने सियासी सूझबूझ का लोहा मनवाया था। हालांकि, तब और अब की स्थिति में बहुत अंतर है। तब यूपीए में शामिल लोजपा, जदएस और आरपीआई अब एनडीए में है। उस चुनाव में 62 सीटें जीतने वाली वाम मोर्चा और यूपी में 19 सीटें जीतने वाली बसपा अपनी स्थापना के बाद से सबसे कमजोर स्थिति में है। राजद, सपा भी अपने अपने राज्यों में लंबे समय से सत्ता से दूर हैं। महाराष्ट्र, बिहार, तमिलनाडु को छोड़कर कांग्रेस दूसरे राज्यों में मजबूत गठबंधन तैयार करने में नाकाम रही है।
2004 में बाजी पलटने में माकपा महासचिव रहे हरकिशन सिंह सुरजीत की भूमिका अहम थी। उन्होंने विपक्षी एकता का तानाबाना बुना। वाम मोर्चा त्रिपुरा, केरल, प. बंगाल में यूपीए-एनडीए दोनों के खिलाफ लड़ी थी। जबकि, पंजाब, तमिलनाडु सहित कुछ राज्यों में पार्टी कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए के साथ थी। चुनाव बाद सुरजीत ने ही सपा, बसपा को यूपीए को समर्थन देने के लिए राजी किया था।
इंडिया शाइनिंग की चमक फीकी करने में सपा, बसपा, राजद, लोजपा जैसे दलों ने भी अहम भूमिका निभाई थी। इन दलों के कारण यूपी और बिहार की 120 सीटों में से भाजपा को महज 15, तो एनडीए को 22 सीटें हासिल हुईं। शेष 98 सीटों पर यूपीए और भाजपा विरोधी दल का कब्जा रहा। लालू, मुलायम, मायावती का करिश्मा भाजपा पर भारी पड़ा।
दो दशक बाद सियासी परिस्थिति में बड़ा बदलाव आया है। हरकिशन, मुलायम अब इस दुनिया में नहीं हैं। वाम मोर्चा की ताकत केरल तक सिमट गई है। लालू अस्वस्थ हैं। वहीं, दूसरी ओर हिंदी पट्टी में भाजपा की ताकत अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है। बीते चुनाव में इस क्षेत्र की 225 सीटों में से भाजपा ने अकेले दम पर 177, तो सहयोगियों के दम पर 203 सीटें जीती थी। 2004 में क्षेत्रीय दल और कांग्रेस भाजपा पर पूरी तरह से हावी रहे थे। भाजपा महज 78, तो सहयोगियों के साथ 84 सीट ही जीत पाई थी।
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