14 वर्ष में दुनिया में तीन गुना बढ़े विरोध-प्रदर्शन, भारत में सबसे बड़ा आंदोलन किसानों का रहा
जर्नल नेचर में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक, अहिंसक विरोधों का हिंसक विरोधों की तुलना में अधिक प्रभाव पड़ता है और अन्य परिणामों के अलावा राजनीतिक शासन को बदलने में ये अधिक प्रभावी होते हैं। अध्ययन के अनुसार, 2006 से 2020 के बीच हुए विरोध प्रदर्शनों का विश्लेषण बताता है कि 2020 के दौरान भारत में किसानों का विरोध सबसे बड़ा था।
नई दिल्ली (आरएनआई) दुनियाभर में 2006 के बाद विरोध-प्रदर्शनों की संख्या तीन गुना से अधिक बढ़ गई है। इन बढ़ते हुए विरोध प्रदर्शनों का कारण राजनीति, कृषि, सरकारी या गैर सरकारी अन्याय, असमानता और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे हैं।
जर्नल नेचर में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक, अहिंसक विरोधों का हिंसक विरोधों की तुलना में अधिक प्रभाव पड़ता है और अन्य परिणामों के अलावा राजनीतिक शासन को बदलने में ये अधिक प्रभावी होते हैं। अध्ययन के अनुसार, 2006 से 2020 के बीच हुए विरोध प्रदर्शनों का विश्लेषण बताता है कि 2020 के दौरान भारत में किसानों का विरोध सबसे बड़ा था। अन्य प्रमुख विरोधों में 2010 के अरब स्प्रिंग, ऑक्युपाई आंदोलन और 2020 में वैश्विक ब्लैक लाइव्स मैटर विरोध शामिल हैं। इसी कड़ी में जारी इस्राइल-हमास संघर्ष के बाद से हजारों की तादाद में विरोध-प्रदर्शन हुए हैं।
अध्ययन से पता चलता है कि 1900 से 2006 के बीच 300 विरोध प्रदर्शन और क्रांतिकारी अभियान राष्ट्रीय नेताओं को पदों से हटाने के मकसद से किए गए थे। मिसाल के तौर पर फिलीपीन की पीपुल्स पावर क्रांति जैसे अहिंसक विरोध प्रदर्शन 1986 में तानाशाह फर्डिनेंड मार्कोस को हटाने में सफल रहे।
अध्ययन में अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक एरिका चेनोवेथ के हवाले से कहा गया है कि हर आंदोलन जिसने आबादी के कम से कम 3.5 फीसदी लोगों को संगठित किया वह सफल रहा। यानी विरोध-प्रदर्शन से बदलाव सुनिश्चित करने के लिए इस स्तर की भागीदारी की जरूरत होती है।
अध्ययन में 2010 में टेक बैक पार्लियामेंट अभियान का उदाहरण दिया है, जिसका उद्देश्य चुनावी सुधार था। इसे एकजुट मांगों के कारण सफलता मिली और समन्वित नारों और मांगों के साथ उसी संगठनात्मक रूप ने 2011 में यूके के जनमत संग्रह को प्रभावित किया। यह 2011 में ऑक्युपाई लंदन से अलग है, जहां विरोध प्रदर्शनों में असमानता, वित्तीय विनियमन, जलवायु परिवर्तन और उत्पीड़न को संबोधित करने के लिए कई मांगें शामिल थीं। हालांकि, इनमें सामंजस्य की कमी थी।
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