हादसा पीछे, आगे आस्था का जन ज्वार, संगम तट पर अनुकरणीय बना एकता का महाकुंभ
मौनी अमावस्या स्नान पर्व पर मौन डुबकी की ललक में संगम पर हुआ हादसा आस्था के जन ज्वार में चंद समय बाद ही पीछे छूट गया। आठ लेन वाले अखाड़ा मार्ग से लेकर संगम द्वार तक कुछ देर बाद ही ऐसा माहौल बन गया, जैसे वहां कुछ़ हुआ ही न हो
प्रयागराज (आरएनआई) मौनी अमावस्या स्नान पर्व पर मौन डुबकी की ललक में संगम पर हुआ हादसा आस्था के जन ज्वार में चंद समय बाद ही पीछे छूट गया। आठ लेन वाले अखाड़ा मार्ग से लेकर संगम द्वार तक कुछ देर बाद ही ऐसा माहौल बन गया, जैसे वहां कुछ़ हुआ ही न हो। आस्था का जन प्रवाह रत्ती भर कम नहीं हुआ। बृहस्पतिवार की आधी रात को ही संगम नोज की सर्क्युलेटिंग एरिया में तिल रखने की जगह नहीं बची। चेहरे पर उत्साह और पांवों में कभी न आने वाली थकान का भाव लिए संगम की दूरी पूछते लोग आस्था की डगर पर बढ़ते नजर आए। विशाखापत्तनम से चाहे लाल मार्ग हो या काली मार्ग या फिर त्रिवेणी मार्ग। हर तरफ से भक्ति की लहरें संगम की ओर उफनाती रहीं।
चाहे धर्म भीरु सम्राट हर्षवर्धन का दौर रहा हो या फिर सैकड़ों वर्षों की गुलामी का कालखंड। कुंभ में आस्था का यह जन प्रवाह कभी नहीं रुका। पद्मपुराण में कहा गया है कि आगच्छन्ति माघ्यां तु, प्रयागे भरतर्षभ... यानी माघ महीने में सूर्य जब मकर राशि में गोचर करते हैं तब संगम में स्नान से करोड़ों तीर्थों के बराबर पुण्य मिल जाता है। लोक धारणा है कि इस अवधि में जो श्रद्धालु प्रयाग में स्नान करते हैं, वह हर तरह के पापों से मुक्त हो जाते हैं।
यही धारणा संगम पर जन ज्वार के रूप में दिन रात उफना रही है। बिहार के रोहतास स्थित परछा गांव से अपनी मां को कुंभ स्नान कराने आए भूषण चंद्र चौबे बुधवार की रात संगम नोज पर हुए हादसे के समय घिर गए थे। बिना स्नान किए रात को किसी तरह वहां से सुरक्षित सेक्टर 18 के अपने शिविर में मां को लेकर वापस आए। बृहस्पतिवार को वह संगम नोज पर उसी जगह वह फिर अपनी मां सुनयना देवी को लेकर स्नान कराने पहुंचे।
त्रिवेणी की पावन धारा में डुबकी लगाकर दोनों मां-बेटा धन्य हो उठे। उनका कहना था कि वह यहां किसी चमक दमक, बसावट या बाहरी व्यवस्था को देखने नहीं आए हैं। संगम की महिमा ही सनातन संस्कृति का गौरव है। वह कहते हैं कि कुंभ मनुष्य के अंतर्मन की चेतना का नाम है। यह चेतना स्वत: जागृत होती है। यही चेतना भारत के कोने-कोने से लोगों को संगम तट तक खींच लाती है।
गांव, कस्बों, शहरों से लोग तीर्थराज की त्रिवेणी की ओर निकल पड़ते हैं। सामूहिकता की ऐसी शक्ति, ऐसा समागम शायद ही कहीं और देखने को मिले। यहां आकर संत-महंत, ऋषि-मुनि, ज्ञानी-विद्वान, सामान्य जन सब एक हो जाते हैं। सब एक साथ त्रिवेणी में डुबकी लगा रहे हैं। यहां जातियों का भेद खत्म हो जाता है, संप्रदायों का टकराव मिट जाता है। करोड़ों लोग एक ध्येय, एक विचार से जुड़ जाते हैं।
इसी तरह कनाडा से क्रियायोग आश्रम के शिविर में पहुंचकर कल्पवास कर रहीं श्रीमा मालिनी, डेविन, लिंडा गैल कहती हैं कि महाकुंभ के दौरान यहां अलग-अलग राज्यों से करोड़ों लोग जुटे हुए हैं। उनकी भाषा अलग है, जातियां अलग हैं। मान्यताएं अलग है, लेकिन संगम नगरी में आकर वो सब एक हो गए हैं और इसलिए महाकुंभ एकता का महायज्ञ बन गया है। इसमें हर तरह के भेदभाव की आहुति दे दी जाती है। यहां संगम में डुबकी लगाने वाला हर भारतीय एक भारत-श्रेष्ठ भारत की अद्भुत तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है।
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