संविधान में समाजवादी-धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द जाेड़ने के केस में फैसला सुरक्षित; कोर्ट ने की कई अहम टिप्पणी
1976 में इंदिरा गांधी सरकार ने 42वें संवैधानिक संशोधन करके संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी", "धर्मनिरपेक्ष" और "अखंडता" शब्द शामिल किए थे। इस संशोधन के बाद प्रस्तावना में भारत का स्वरूप "संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य" से बदलकर "संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य" हो गया था।
नई दिल्ली (आरएनआई) संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द शामिल किए जाने के खिलाफ दाखिल याचिका पर शीर्ष कोर्ट ने सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया है। सुप्रीम कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन और अन्य द्वारा दायर याचिकाओं के एक समूह पर सुनवाई कर रही थी। इन याचिकाकर्ताओं ने इन दोनों शब्दों के संविधान में शामिल किए जाने के खिलाफ याचिका दाखिल की थी। गौरतलब है कि 1976 में पारित 42वें संशोधन के बाद इन दोनों शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था।
इस दौरान सीजेआई ने कहा कि संविधान में 42वां संशोधन इस अदालत द्वारा कई न्यायिक समीक्षाओं के अधीन किया गया है। हम यह नहीं कह सकते कि संसद ने उस समय (आपातकाल) जो कुछ भी किया वह सब अमान्य था। फैसला सुरक्षित रखते हुए पीठ ने मामले को संविधान पीठ को भेजने से इनकार करते हुए याचियों की मांग को खारिज कर दिया। साथ ही कहा कि भारतीय अर्थों में "समाजवादी होना" एक "कल्याणकारी राज्य" समझा जाता है। सीजेआई की पीठ ने पीठ ने इस मुद्दे पर अपना फैसला सुनाने के लिए 25 नवंबर की तारीख तय की है।
1976 में इंदिरा गांधी सरकार ने 42वें संवैधानिक संशोधन करके संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी", "धर्मनिरपेक्ष" और "अखंडता" शब्द शामिल किए थे। इस संशोधन के बाद प्रस्तावना में भारत का स्वरूप "संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य" से बदलकर "संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य" हो गया था।
सुनवाई के दौरान अपनी दलील देते हुए अधिवक्ता विष्णु कुमार जैन ने कहा कि नौ-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के एक हालिया फैसले का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 39(बी) पर 9 जजों की पीठ के फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि उस फैसले में शीर्ष कोर्ट ने "समाजवादी" शब्द की उस व्याख्या पर असहमति जताई जिसे शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी आर कृष्णा अय्यर और ओ चिन्नप्पा रेड्डी ने प्रतिपादित किया था।
इस पर सीजेआई खन्ना ने कहा कि भारतीय संदर्भ में हम समझते हैं कि भारत में समाजवाद अन्य देशों से बहुत अलग है। हम समाजवाद का मतलब मुख्य रूप से एक कल्याणकारी राज्य समझते है। कल्याणकारी राज्य में उसे लोगों के कल्याण के लिए खड़ा होना चाहिए और अवसरों की समानता प्रदान करनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने 1994 के एसआर बोम्मई मामले में "धर्मनिरपेक्षता" को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना था।
वकील जैन ने आगे तर्क दिया कि संविधान में 1976 का संशोधन लोगों को सुने बिना पारित किया गया था क्योंकि यह आपातकाल के दौरान पारित किया गया था। इन शब्दों को शामिल करने का मतलब लोगों को विशिष्ट विचारधाराओं का पालन करने के लिए मजबूर करना होगा। उन्होंने कहा कि जब प्रस्तावना एक कट-ऑफ तारीख के साथ आती है, तो इसमें नए शब्द कैसे जोड़े जा सकते हैं?
मामले में एक अन्य याची वकील अश्विनी वैष्णव ने कहा कि वह "समाजवाद" और "धर्मनिरपेक्षता" की अवधारणाओं के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन प्रस्तावना में उन्हें शामिल करने का विरोध करते हैं। इस पर पीठ ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति देता है और इसके विस्तार में प्रस्तावना भी आती है।
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