राजस्थान में मुख्यमंत्री के नाम पर मंथन, वसुंधरा समर्थित विधायकों ने ठोका दावा
पांचों राज्यों में चुनावी नतीजे आने के बाद से ही राजनीतिक दलों में हलचल बढ़ गई है। राजस्थान में बंपर जीत के बाद से ही भाजपा में मुख्यमंत्री के नाम को तय करने पर मंथन चल रहा है।
राजस्थान, (आरएनआई) राजस्थान के भावी मुख्यमंत्री को लेकर प्रभारी अरुण सिंह का कहना है कि भाजपा संसदीय बोर्ड का निर्णय सभी को मानना होगा। गृह मंत्री अमित शाह ने भी राजस्थान के मुख्यमंत्री को लेकर बयान दिया है। उन्होंने कहा कि अभी किसी का नाम तय नहीं हुआ है। इसके समानांतर योगी बाबा बालकनाथ रेस में अपना नाम सुनकर फूले नहीं समा रहे हैं। लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने तो उन्हें बधाई तक दे दी। वहीं भाजपा की इस रेस से बेखबर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजनीतिक भविष्य को लेकर दम ठोंकने का कोई अवसर नहीं गंवाना नहीं चाहती।
वसुंधरा के करीबी विधायक कालीचरण सराफ ने बड़ा दावा किया है। वह वसुंधरा को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में 70 विधायकों का दावा कर रहे हैं। यह दावा करने वाले कालीचरण कोई अकेले नहीं हैं। वसुंधरा के करीबी और जीतकर आए चार विधायकों ने अमर उजाला को भिन्न भिन्न संख्या गिनाई। एक विधायक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि जीतकर आने वाले 42 विधायक महारानी के साथ हैं। वसुंधरा के करीबी एक और नेता का दावा है कि 32 विधायक वसुंधरा का साथ देंगे। इनमें अधिकांश उनके रात्रिभोज में शामिल हुए थे। सतीश पूनिया के विरोधी भाजपा नेता ने यह संख्या 36 बताई है। सुरेश रावत, बहादुर कोली, गोपीचंद मीणासमाराम की भी पहली पसंद वसुंधरा ही हैं।
जयपुर में वसुंधरा की तारीफ करने वाले भाजपा नेताओं की कमी नहीं है। एक नेता जी कहते हैं कि 7 सांसदों ने चुनाव लड़ा था। तीन चुनाव हार गए। इन्हें तो केन्द्र ने ही मैदान में उतारा था। वह कहते हैं कि पूरे चुनाव में वसुंधरा ने 60 जनसभाएं की। भाजपा के तमाम बागी नेताओं के खिलाफ कोई जनसभा और प्रचार नहीं किया। वह कहते हैं कि नतीजों की समीक्षा कीजिएगा तो कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी। सही बात यह है कि वसुंधरा के मुकाबले भाजपा के पास राजस्थान में कोई लोकप्रिय नेता नहीं है। माना जा रहा है कि इसे वसुंधरा राजे भी बखूबी समझती हैं।
वसुंधरा कैंप का मानना है कि यह वसुंधरा की आखिरी राजनीतिक पारी जैसी है। यदि वह इस बार चूक गईं तो राजस्थान की राजनीति का सुनहरा कटोरा उनके हाथ से निकल जाएगा। इतना ही नहीं, वह राजनीति में भी हाशिए पर चली जाएंगी। राजस्थान की राजनीति को समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार संतोष पांडे भी इससे सहमत हैं। संतोष कहते हैं कि अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने के लिए वसुंधरा के पास अपने हक के लिए लड़ने के सिवा कोई चारा नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिक वसुंधरा को लेकर पूरे राजस्थान के लोग इसी तरह की राय रखते हैं, क्योंकि केन्द्र से उनके समीकरण व्यावहारिक नहीं हैं।
राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे केन्द्रीय भाजपा के गले में हड्डी की तरह फंस गई हैं। राजस्थान में विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी के तमाम नेता वसुंधरा को किनारे किए जाने को सही ठहराने में लगे थे। भाजपा के प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल, आईटी विभाग के प्रमुख अमित मालवीय समेत अन्य वसुंधरा को महत्व नहीं दे रहे थे। अमर उजाला से बातचीत में करीब-करीब संकेत मिल रहे थे कि बहुमत आने की दशा में भाजपा राजस्थान में वसुंधरा को मुख्यमंत्री बनने का अवसर नहीं देगी। विधानसभा चुनाव हारने वाले पूर्व भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया का सचिवालय तो इसके लिए शर्त लगा रहा था।
केन्द्र वसुंधरा को मुख्यमंत्री का ताज देने के पक्ष में नहीं है। हालांकि भाजपा इस बारे में कोई भी निर्णय पार्टी के संविधान, परंपरा और लोकतंत्रीय मर्यादा का पालन करते हुए लेती है। इसमें पर्यवेक्षक भेजना, भाजपा की संसदीय बोर्ड की बैठक में विचार करना आदि शामिल है। समझा जा रहा है कि वसुंधरा के पावर प्रदर्शन की झलक देने से केन्द्रीय नेतृत्व की परेशानी थोड़ी बढ़ रही है। हालांकि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व हर चुनौती पूर्ण समय को आसानी से पार पा लेने में निपुण है।
राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री ठसक भरी राजनीति के लिए जानी जाती हैं। अंदाजा यही है कि अभी वह राजस्थान पर अपनी दावेदारी पेश कर रही है। दावेदारी पेश करने के साथ-साथ उनकी निगाह दिल्ली दरबार पर भी टिकी है। वसुंधरा राजनीति का गुणा गणित लगाकर ही अपना मन बनाती हैं। इसमें अगले साल होने वाला लोकसभा चुनाव प्रमुखता से है। वह अपने लक्ष्य के लिए पार्टी छोड़ने तक की चेतावनी देने से पीछे नहीं हटतीं। ऐसा वह इसके पहले भी कर चुकी हैं। ऐसे में कयास है कि अपने राजनीतिक भविष्य को देखकर वह मोल-तोल की आखिरी सीमा तक जाने में भी कोई संकोच नहीं करेंगी। हालांकि भाजपा के एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री का कहना है कि किसी को मुगालते में नहीं रहना चाहिए। पार्टी हमेशा अपने किसी भी नेता से बड़ी होती है।
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