माता भुवनेश्वरी देवी की कथा सुनकर भक्त हुये भाव विभोर
हरदोई (आरएनआई) टड़ियावां ब्लॉक के गांव सिकरोहरी में चल रहे शतचंडी महायज्ञ व देवी भागवत कथा के चौथे दिन कथा आचार्य अवधेश शरण शुक्ल ने माता भुवनेश्वरी देवी की कथा सुनाते हुए कहा कि देवी भागवत में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी, हल्लेखा मंत्र की स्वरूपाशक्ति और सृष्टिक्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा-आदिशक्ति भगवती भुवनेश्वरी भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं। जगदंबा भुवनेश्वरी स्वरूप सौम्य और अंगकांति अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दशमहाविद्याओं में ये पांचवें स्थान पर परिवर्णित हैं। देवीपुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। ईश्वर रात्रि में जब ईश्वर जगदू्रप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ शेष रहता है, तब ईश्वर रात्रि की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी कहलाती है। अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध हैं। अंकुश नियंत्रण का प्रतीक है और पाश राग अथवा आसक्ति का प्रतीक है। इस प्रकार सर्वरूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्वरी है, जो विश्व को वमन करने के कारण रौद्री कही जाती है। भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी कहलाता है। भुवनेश्वरी संग से ही भुवनेश्वरी सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है। महानिर्वाणतंत्र के अनुसार संपूर्ण महाविद्याएं भगवती भुवनेश्वरी सेवा में सदा संलग्न रहती हैं। सात करोड़ महामंत्र इनकी संपूर्ण सदा आराधना करते हैं। दशमहाविद्याएं ही दस सोपान हैं। काली तत्त्व से निर्गत होकर कमला तत्त्व तक की दस स्थितियां हैं, जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्मांड का रूप धारण कर सकती हंै तथा प्रलय में कमला से अर्थात व्यक्त जगत से क्रमशः लय होकर काली रूप में मूल प्रकृति बन जाती हैं। इसलिए इन्हें काल की जन्मदात्री भी कहा जाता है। दुर्गासप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में मंगलाचरण में भी कहा गया है कि मैं भुवनेश्वरी देवी का ध्यान करता हूं उनके श्रीअंगों की शोभा प्रातः काल के सूर्यदेव के समान अरुणाभ है। उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है। तीन नेत्रों से युक्त देवी के मुख पर मुस्कान की छटा छाई रहती है उनके हाथों में पाश, अंकुश वरद एवं अभय मुद्रा शोभा पाते हैं। इस प्रकार बृहन्नीलतंत्र की यह धारणा पुराणों के विवरणों से भी पुष्टि होती है कि प्रकारांतर से काली और भुवनेश्वरी दोनों में अभेद है। प्रकृति भुुवनेश्वरी ही रक्तवर्णा काली हैं। देवी भागवत के अनुसार दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचार से संतप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालय पर सर्वकारण स्वरूपा भगवती भुवनेश्वरी की ही अराधना की थी। उनकी अराधना से प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्वरी तत्काल प्रकट हो गईं वे अपने हाथों में बाण, कमल पुष्प तथा शाक मूल लिए हुए थीं। उन्होंने अपने नेत्रों से अश्रु जल की सहस्त्रों धाराएं प्रकट कीं। इस से भूमंडल के सभी प्राणी तृप्त हो गए। समुद्रों तथा सरिताओं में अगाध जल भर गया। और समस्त औषधियां सिंच गईं। अपने हाथ में लिए गए शाकों और फल मूल से प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुवनेश्वरी ही शताक्षी तथा शाकंभरी नाम से विख्यात हुईं उसके बाद में भगवती भुवनेश्वरी का एक नाम दुर्गा प्रसिद्ध हुआ। भगवती भुवनेश्वरी उपासना पुत्र-प्राप्ति के लिए विशेष फलप्रदा है। रुद्रयामल में इनका कवच, नीलसरस्वती तंत्र में इनका हृदय तथा महातंत्रार्णव में इनका सहस्त्र नाम संकलित है। इसके उपरांत हरिद्वार कनखल से पधारे महामण्लेश्वर स्वामी विज्ञानानंद जी महाराज ने भक्तों को उपदेश देते हुए बताया कि सभी लोग अपने अपने कार्यों में संलग्न रहते हुए ईश्वर का भजन करें ईश्वर सदैव भक्त के वश में रहते हैं।इसके उपरांत पं.सन्तोष मिश्रा ने महाभारत कथा को सुनाया। इस सुअवसर पर पूर्व ब्लाक प्रमुख उदयराज सिंह, ह्रदय राज सिंह,यज्ञ यजमान मोहनीश चंदेल, चन्द्र राज सिंह,अनुज सिंह,श्यामू सिंह, अमर नीरज आदि लोगो समेत सैकड़ों श्रोता उपस्थित रहे।
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