भागवत कथा सुनने से मिलती है भक्ति और बैकुंठ जाने का मार्ग: इंद्रेशजी
सामरसिंगा परिवार द्वारा आयोजित की जा रही है श्रीमद् भागवत कथा
गुना (आरएनआई) श्रीमद् भागवत कथा कराना, सुनना पुण्य प्राप्ति का साधन नहीं है। भागवत के आयोजन एवं श्रवण से भक्ति की प्राप्ति होती है और भक्ति बैकुंठ जाने का मार्ग एवं साधन है। पुण्य प्राप्त करने वाला व्यक्ति स्वर्ग जा सकता है, लेकिन भक्ति नारायण की शरण में ले जाती है, भक्तों को बैकुण्ठ में स्थान प्राप्त होता है। यह बात वृंदावन से आए प्रसिद्ध कथा वाचक पं. इंद्रेश जी ने भगत सिंह कॉलोनी में जारी श्रीमद् भागवत कथा के दूसरे दिन कही।
सामरसिंगा परिवार द्वारा 20 जनवरी से 27 जनवरी तक आयोजित की जा रही श्रीमद् भागवत कथा के दूसरे दिन इंद्रेश जी ने विभिन्न प्रसंगों के साथ-साथ भक्ति, पुण्य और संतों के महत्व पर प्रकाश डाला। इंद्रेशजी ने कहाकि नौकरी, व्यापार से जिस प्रकार धन अर्जित किया जाता है, उसी प्रकार अच्छे कर्मों से पुण्य मिलता है। पुण्य का उपयोग स्वर्ग में किया जा सकता है। लेकिन बैकुण्ठ जाने के लिए भक्ति आवश्यक है, जो श्रीमद् भागवत कथा के श्रवण से प्राप्त होती है। बैकुण्ठ में धर्म और पुण्य नहीं बल्कि भक्ति ही आवश्यक होती है। कथा श्रवण को पुण्य के रूप में स्वीकार करेंगे तो बड़े लाभ से वंचित हो रहे हैं। यह कुछ वैसा ही है जैसा चांदी के कटोरे में मिट्टी भरना। कथा से श्रीकृष्ण और ठाकुरजी की प्राप्ति की कामना करें। पुण्य के लिए गरीबों की मदद, गौवंश की व्यवस्था करें। भक्ति प्रत्येक फल से श्रेष्ठ है। कथा के दौरान इंद्रेश जी ने संतों के महत्व पर भी प्रकाश डाला।
उन्होंने श्रेष्ठ संत की परिभाषा विस्तार से बताई। इंद्रेशजी ने कहाकि कथा सुनने के बाद ठाकुरजी अपने से लगते हैं। वेद व्यासजी ने भागवत की रचना करने के बाद अपनी कलम को गंगाजी में बहा दिया था। क्योंकि उन्हें प्रतीत हुआ कि अब इसकी आवश्यकता नहीं है। भागवतजी लिखने के बाद उन्हें संतोष मिल गया। वेद व्यासजी को लगा कि इसके बाद कुछ शेष नहीं है। भावगत सर्वोपरि है, सर्वश्रेष्ठ है।
श्रीमद् भागवत कथा का वर्णन करते हुए इंद्रेशजी ने प्रसंग सुनाया कि सुकदेव जी राधा रानी जी के संदेश वाहक के समान करते हैं। परंतु एक समय उन्होंने ठाकुर को नमन नहीं किया। इसके बाद राधा-रानीजी ने सुकदेव को कथा सुनने का आदेश दिया। सुकदेव जी धरती पर पहुंचे, जहां हिमालय पर्वत पर भगवान शिव पार्वतीजी को कथा सुना रहे थे। कथा का संपूर्ण श्रवण करने के बाद ही सुकदेव ने ठाकुरजी के बारे में जाना और वह संसार की मोह-माया से दूर चले गए।
इंद्रेशजी ने वर्तमान पीढ़ी द्वारा धर्म-कर्म में रुचि लेने के विषय पर सराहना की। उन्होंने उल्लेख किया कि लोग अपने बच्चों को संस्कृत के मंत्र सिखा रहे हैं, यह प्रसन्नता का विषय है। लेकिन गायत्री मंत्र के उच्चारण के तौर-तरीके पर इंद्रेशजी ने श्रावकों को सचेत किया। उन्होंने कहाकि गायत्री मंत्र उच्चारण करने का नियम होता है, यह ब्रह्म विद्या की तरह है। जिसको अधिकार है, वही गायत्री मंत्र उच्चारण कर सकते हैं। यदि हम गायत्री मंत्र बोलना सीख गए हैं तो मन ही बोलना चाहिए। यह बहुमूल्य रत्न के समान है, जिसका प्रदर्शन न करें।
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