बेसहारा बच्चों के माता-पिता बन उनकी जिम्मेदारी उठा रही ये दंपती

शरद ने बताया कि साल 2016 में पुणे में एक आदिवासी लड़की को करतब दिखाते हुए देखा, तब उनके मन में गरीब बच्चों के लिए काम करने का विचार आया। बच्ची बहुत प्रतिभाशाली थी, लेकिन वह शिक्षा से वंचित थी।

Apr 7, 2024 - 09:58
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बेसहारा बच्चों के माता-पिता बन उनकी जिम्मेदारी उठा रही ये दंपती

मुंबई (आरएनआई) बच्चे जिनका नाम लेते ही हमारे दिमाग में उनकी मासूमयित और उनका हंसता खेलता चेहरा नजर आता है। हमारे समाज में कुछ ऐसे भी बच्चे हैं, जिनका बचपन कई कारणों से उनसे छिन गया है। हमें और आपको ऐसे बच्चे रेलवे स्टेशन, ट्रैफिक सिग्नल, बाजार और दूसरी जगहों पर दिखाई दे जाते हैं, लेकिन हम लोगों में से कितनों का ध्यान इनके पुनर्वास पर जाता है। बावजूद हमारे समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो इन बच्चों के विकास पर ध्यान दे रहे हैं। ऐसा ही एक दंपती है जो महाराष्ट्र के लातूर जिले के एक गुमनाम से गांव में रहकर ऐसे बच्चों का ना सिर्फ सहारा बन रहे हैं बल्कि उनको पढ़ा लिखाकर इस काबिल बना रहे कि वो अपने पैरों पर खड़े हो सकें। दंपती ने वंचित बच्चों को पढ़ाने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक आश्रय स्थल बनाया है। वे अभी करीब 51 लड़के-लड़कियों के माता-पिता हैं।  

बेसहारा, परिवार से अलग हुए और गरीब परिवार से जुड़े बच्चों को अपने साथ जोड़ने के लिए शरद और संगीता जारे ने 'माझा घर' नाम से एक आश्रम खोला। यह आश्रम औसा तहसील के बुधोदा गांव के पास 14 एकड़ जमीन पर स्थित है। इसे दंपती अपने मानुस प्रतिष्ठान संगठन की मदद से चलाता है। बता दें, आश्रम 1.10 एकड़ में स्थापित है, जबकि शेष भूमि का उपयोग खेती के लिए किया जाता है और बच्चों द्वारा विभिन्न फसलों का उत्पादन किया जाता है।

शरद जारे ने बताया, 'महात्मा गांधी ने 1937 में 'नई तालीम' की अवधारणा पेश की थी, जिसके तहत गांवों को स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने का सपना देखा गया था। इसी तरह, मैं अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाना चाहता हूं। हम बच्चों को मूर्तियां और अन्य वस्तुएं बनाना सिखाते हैं।' उन्होंने बताया कि आश्रम का खर्चा कृषि से और बच्चों द्वारा बनाए गए सामनों को बेचकर उठाया जाता है। 

अभी तक दंपती ने 51 बच्चों को गोद लिया है। जिन्हें गोद लिया है उनमें रेड-लाइट क्षेत्रों के बच्चे, अनाथ, गन्ना काटने वाले बच्चे और आत्महत्या करने वाले किसानों के बच्चे शामिल हैं। 

शरद ने बताया कि साल 2016 में पुणे में एक आदिवासी लड़की को करतब दिखाते हुए देखा, तब उनके मन में गरीब बच्चों के लिए काम करने का विचार आया। बच्ची बहुत प्रतिभाशाली थी, लेकिन वह शिक्षा से वंचित थी क्योंकि वह एक गरीब परिवार से थी। अवसरों की कमी के कारण ऐसे बच्चे अपराध करने लग जाते हैं।

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