बांग्लादेश की तकदीर में बार-बार क्यों लिखा है सैन्य शासन, आजादी के बाद अब तक चार तख्तापलट
आजादी के बाद मुक्ति वाहिनी के सदस्य बांग्लादेशी सेना का हिस्सा बन गए। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में सेना के भीतर उन बंगाली सैनिकों के खिलाफ भेदभाव के कारण तनाव उभरने लगा, जिन्होंने मुक्ति युद्ध की अगुवाई में पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह नहीं किया था।
ढाका (आरएनआई) बांग्लादेश की सत्ता में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सेना की भूमिका हमेशा रही है। 1971 में देश के आजाद होने के चार साल बाद 1975 में राष्ट्र संस्थापक मुजीबुर्रहमान की हत्या से लेकर 2024 तक सेना का शिकंजा सत्ता पर काबिज रहा। 1975 से 1996 (शेख हसीना के पहली बार पीएम बनने) तक सेना प्रत्यक्ष रूप से शासन करती रही। 2008 में हसीना के सत्ता में वापसी तक जनरलों का हस्तक्षेप जारी रहा। 2009 से लगाता 2024 तक हसीना देश की पीएम रहीं, लेकिन पर्दे के पीछे से सेना का सत्ता की रस्साकशी में खास दखल रहा।
1970 में पाकिस्तान (तब पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान) के आम चुनावों में मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान में 162 में से 160 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत दर्ज किया। जुल्फिकार अली भुट्टो की पीपीपी ने पश्चिमी पाकिस्तान में 138 में से 81 सीटें जीतीं। अवामी लीग की जीत के बावजूद उस वक्त मार्शल लॉ के जरिये देश पर शासन कर रहे पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल याह्या खान ने मुजीबुर्रहमान को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया। इससे पूर्वी पाकिस्तान में अशांति फैली।
सात मार्च, 1971 को मुजीब ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों से बांग्लादेश की आजादी के लिए व्यापक संघर्ष के लिए खुद को तैयार करने का आह्वान किया। जवाब में पाकिस्तानी सेना ने अपना कुख्यात ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया। इसके तुरंत बाद पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और बांग्लादेश मुक्ति युद्ध छिड़ गया, जिसमें भारत ने हस्तक्षेप किया। इन सैनिकों ने नागरिकों के साथ मिलकर मुक्ति वाहिनी का गठन किया और पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध किया।
आजादी के बाद मुक्ति वाहिनी के सदस्य बांग्लादेशी सेना का हिस्सा बन गए। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में सेना के भीतर उन बंगाली सैनिकों के खिलाफ भेदभाव के कारण तनाव उभरने लगा, जिन्होंने मुक्ति युद्ध की अगुवाई में पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह नहीं किया था।
15 अगस्त, 1975 को असंतोष उबल पड़ा। मुट्ठी भर युवा सैनिकों ने बंगबंधु और उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी। उस वक्त उनकी दोनों बेटियां शेख हसीना और शेख रेहाना विदेश में होने के कारण बच गईं। इस पहले सैन्य तख्तापलट का नेतृत्व मेजर सैयद फारुक रहमान, मेजर खांडेकर अब्दुर रशीद और राजनेता खोंडेकर मुस्ताक अहमद ने किया। एक नई व्यवस्था स्थापित हुई। मुस्ताक अहमद राष्ट्रपति बने और मेजर जनरल जियाउर रहमान को नया सेना प्रमुख नियुक्त किया गया।
नए शासक लंबे समय तक सत्ता में नहीं रहे। 3 नवंबर को मुजीब के समर्थक माने जाने वाले ब्रिगेडियर खालिद मुशर्रफ ने एक और तख्तापलट किया और खुद को नया सेना प्रमुख नियुक्त कर लिया। मुशर्रफ ने जियाउर रहमान को घर में नजरबंद कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि बंगबंधु की हत्या के पीछे जियाउर का हाथ था।
7 नवंबर को तीसरा तख्तापलट हुआ। इस घटना को सिपाही-जनता बिप्लब (सैनिक और जनक्रांति) के नाम से जाना जाता है। मुशर्रफ की हत्या कर दी गई और जियाउर रहमान राष्ट्रपति बन गए। जियाउर ने 1978 में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) बनाई और आम चुनाव जीता। 1981 में मेजर जनरल मंजूर के नेतृत्व वाली एक विद्रोही सेना इकाई ने उन्हें सत्ता से हटा दिया। विद्रोहियों ने राष्ट्रपति पर उन सैनिकों का पक्ष लेने का आरोप लगाया, जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में भाग नहीं लिया था और जो आजादी के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आए थे।
24 मार्च, 1982 को तत्कालीन सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद ने रक्तहीन तख्तापलट करके सत्ता संभाली। संविधान को निलंबित कर दिया और मार्शल लॉ लागू कर दिया। उन्होंने जियाउर रहमान की जगह राष्ट्रपति बने अब्दुस सत्तार (बीएनपी) को अपदस्थ कर दिया। इरशाद ने 1986 में जातीय पार्टी की स्थापना की और 1982 के तख्तापलट के बाद बांग्लादेश में पहले आम चुनाव की अनुमति दी। उनकी पार्टी ने बहुमत हासिल किया और इरशाद 1990 तक राष्ट्रपति बने रहे। देश में लोकतंत्र समर्थक विरोध प्रदर्शनों के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा।
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