सुप्रीम कोर्ट का निर्देश- निजी अस्पतालों में फॉर्मेसी की लूट से मरीजों को बचाने के लिए नीति बनाएं राज्य
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एनकोटिश्वर सिंह की पीठ ने कानून के छात्र सिद्धार्थ डालमिया की ओर से दायर जनहित याचिका (पीआईएल) पर कोई अनिवार्य निर्देश जारी करने से इनकार करते हुए कहा कि इससे निजी अस्पतालों के कामकाज में बाधा उत्पन्न हो सकती है और इसका व्यापक प्रभाव भी पड़ सकता है।

नई दिल्ली (आरएनआई) सुप्रीम कोर्ट ने निजी अस्पतालों में दवा की दुकानों की लूट से मरीजों और तीमारदारों को बचाने के लिए कोई अनिवार्य निर्देश जारी करने से मना कर दिया है। शीर्ष अदालत ने इस मामले में उचित नीतिगत निर्णय लेने का काम राज्यों पर छोड़ दिया। अदालत मंगलवार को एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें आरोप लगाया था कि मरीजों और तीमरादारों को निजी अस्पतालों की ओर से संचालित फार्मेसियों से ऊंची दरों पर दवा और चिकित्सा उपकरण खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एनकोटिश्वर सिंह की पीठ ने कानून के छात्र सिद्धार्थ डालमिया की ओर से दायर जनहित याचिका (पीआईएल) पर कोई अनिवार्य निर्देश जारी करने से इनकार करते हुए कहा कि इससे निजी अस्पतालों के कामकाज में बाधा उत्पन्न हो सकती है और इसका व्यापक प्रभाव भी पड़ सकता है। पीठ ने कहा, स्वास्थ्य राज्य का मुद्दा है। हम इस याचिका का निपटारा करते हुए सभी राज्य सरकारों को निर्देश देते हैं कि वे इस मुद्दे पर विचार करें और उचित नीतिगत निर्णय लें। पीठ ने कहा कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है और राज्य सरकारें अपनी स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रासंगिक नियामक उपाय कर सकती हैं।
शीर्ष अदालत ने कहा कि यह मुद्दा नीति के दायरे में आता है। नीति निर्माताओं को इस मामले पर समग्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और उचित दिशा-निर्देश तैयार करने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मरीजों और उनके तीमारदारों का शोषण न हो। साथ ही निजी संस्थाओं को स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रवेश करने से न हतोत्साहित किया जाए और न अनुचित प्रतिबंध लगाया जाए। पीठ ने कहा कि पीआईएल पर कोई अनिवार्य निर्देश जारी करना अदालत के लिए उचित नहीं होगा।
पीठ ने कहा कि संविधान के तहत सरकार का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराए, लेकिन जनसंख्या वृद्धि के कारण उसे अपने लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए निजी अस्पतालों की मदद लेनी पड़ी। पीठ ने कहा कि बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का नागरिकों का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित है। स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी अस्पतालों के योगदान की सराहना करते हुए पीठ ने कहा कि न्यायालय द्वारा दिया गया कोई भी अनिवार्य निर्देश उनके कामकाज में बाधा उत्पन्न कर सकता है तथा इसका व्यापक प्रभाव हो सकता है।
सर्वोच्च अदालत ने केंद्र के इस रुख पर गौर किया कि मरीजों या उनके परिजनों पर अस्पताल स्थित दवा दुकानों या किसी खास दुकान से दवाइयां, प्रतिरोपण या चिकित्सा उपकरण लेने की कोई बाध्यता नहीं है।
अपनी मां के उपचार के दौरान आई समस्याओं का जिक्र करते हुए याचिकाकर्ता ने कहा कि उनकी मां को स्तन कैंसर का निदान हुआ था और अब वह ठीक हो चुकी हैं। उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि उनकी मां को सर्जरी करानी पड़ी थी, जिसके बाद छह बार कीमोथेरेपी और अन्य उपचार के साथ-साथ हर 21 दिन में बिसेलटिस इंजेक्शन भी देना पड़ा था।
याचिका में कहा गया है कि उपचार के दौरान उन्हें पता चला कि बिसेलटिस इंजेक्शन उन्हें 61,132 रुपये की अधिकतम कीमत पर बेचा गया था, जबकि उसी कंपनी द्वारा निर्मित और विपणन की गई वही दवा खुले बाजार में 50,000 रुपये की रियायती दर पर बेची जा रही थी।
चार इंजेक्शन खरीदने पर कंपनी द्वारा मरीज सहायता कार्यक्रम के तहत एक इंजेक्शन मरीज को मुफ्त दिया जाता है। याचिका में कहा गया कि मुफ्त इंजेक्शन देने से प्रति इंजेक्शन की प्रभावी लागत करीब 41,000 रुपये आई, लेकिन इसे 61,132 रुपये की अधिकतम बिक्री मूल्य (एमआरपी) पर बेचा जा रहा है।
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