"धर्म" अर्थात् ईश्वरीय श्रद्धा, ईश्वरीय उपासना ओर आराधना

May 11, 2023 - 11:30
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"धर्म" अर्थात् ईश्वरीय श्रद्धा, ईश्वरीय उपासना ओर आराधना

गुना। धर्म का एक और अर्थ है लौकिक एवं सामाजिक कर्तव्य। धर्म शब्द संस्कृत के "धृ" से बना है जिसका अर्थ है धारण करना। धर्म सदैव जोड़ने का काम करता है। भारतीय सनातन जगत का वैशिष्ट्य धर्म ही है जो अनेकों विविधताओं के बाद भी सबको जोड़े हुए है।

बुधवार को गुना में आयोजित ऐसे ही धर्म कार्य की पूर्णाहुति हुई। अनेक रचियताओं द्वारा लिखी गईं अलग अलग रामायण का सार श्रीराम कथा के रूप में श्रीमन्माध्व गौड़ेश्वर वैष्णवाचार्य पूज्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी के मुखारबिंद से सुनने का अवसर हम गुना वासियों को मिला। श्रीराम के जीवन के प्रसंगों की उन्होंने वर्तमान के लोक व्यवहार, देश काल परिस्थिति से जोड़ते हुए जिस तरह व्याख्या की वह अनुकरणीय व स्मरणीय है।

अंतिम दिवस बागेश्वर बालाजी के सेवक, धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी ने दिव्य दरबार लगाकर हजारों लोगों में से कुछेक की पर्चियां बनाकर लोगों में ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास को पुष्ट और अटूट करने का कार्य किया। संदेश यही था कि जीवन में कष्टों का कारण हम स्वयं ही हैं। दुराचारण और नास्तिक होने से कष्ट आते हैं। प्याज, लहसुन, मांस मदिरा छोड़ने का आशय है कि आचरण की शुद्धि रखिए। सुख के लिए इधर उधर भागने के स्थान पर राम में रमिए, ईश्वर पर पूर्ण आस्था और विश्वास रखिए।

यह आयोजन अभूतपूर्व रहा। 74 वर्षीय "युवा" शास्त्रीय नृत्यांगना हेमामालिनी ने मां दुर्गा पर नृत्यनाटिका प्रस्तुत कर शिव पुराण की घटनाओं को मंच पर सजीव कर दिया। इसी तरह अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार बाबा सत्यनारायण मौर्य ने चित्रकारी, राष्ट्रगीत और वक्तव्यों से स्वदेश प्रेम और भारत माता की जय के लिए युवाओं को संकल्पित कराया। भजन गायकों लखबीर सिंह लक्खा और अनूप जलोटा ने लोगों में भक्ति रस का संचार किया।

सबसे अनूठी बात यह रही कि सभी राजनैतिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रवादी, आध्यात्मिक, सामाजिक, जातीय संगठनों के प्रतिनिधि भगवा ध्वज की छाया में एकजुट खड़े नज़र आए। यहां जात-पात, मत-भेद, मन-भेद, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, शहरी-ग्रामीण का कोई भेद दिखाई नहीं दिया। यह अपने गुना की एक सांस्कृतिक विरासत ही कही जाएगी कि धर्म के नाम पर सब एक हैं। यह एकता ही हमारी शक्ति है।

इस आयोजन में एक बात और रही जो प्रशंसनीय है। देश या आस-पास की कुछ ऐसी घटनाएं आपके मन को विदीर्ण कर जाती होंगी जब कोई अपना ही हिंदू भाई राजनीति या हिंदू एकता के लिए खतरा बनी ताकतों के बहकावे में खुद को अनुसूचित जाति का बताते हुए श्री रामचरित मानस जैसे हमारे पवित्र ग्रंथ को फाड़ने का कृत्य करता है, या देवी देवताओं का अपमान करता है। ऐसी घटनाएं संघ के एक स्वयंसेवक के नाते मुझे भी चुभती हैं।

ऐसे में अपने बीच का ही कोई अनुसूचित जाति वर्ग से आने वाला व्यक्ति, केवट बनकर धर्मगंगा को पार कराए और धार्मिक आयोजन का अगुआ बनकर लाखों सनातनियों को श्री राम कथा सुनवा दे, एक स्वर में हजारों लोगों से देवी देवताओं तथा भारत माता के जयकारे लगवा दे। धर्म के गुरुत्व से आपस में जोड़ने का काम करता दिखे और माता बीस भुजा के मंदिर को भी मातृलोक बनाने का विचार रखे तो इतना ही बहुत है।

मुझे किसी की राजनीति से कोई लेना देना नही है। जो भी व्यक्ति सनातन के साथ है, भारत माता की जय के लिए संकल्पित है वह मेरे जैसे लोगों की दृष्टि में कई कमियों के बाद भी उन लोगों से तो ठीक ही है जो भारत, भागवत्, भगवान के विरोध में रहते हैं। कहा भी गया है कि 
"जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं,भए मुद-मंगलकारी।।

अब तर्क के लिए मान लिया जाए कि इन दिनों राजनीतिक उद्देश्य से धार्मिक आयोजन किए जा रहे हैं। तो यह भी पीढ़ा, जलन या ईर्ष्या का नहीं अपितु प्रसन्नता और प्रेरणा का विषय होना चाहिए। एक प्रतिस्पर्धा शुरू होना चाहिए कि हम भी ऐसे आयोजन कर धर्म की जय करेंगे। यह सुखद संकेत है कि मेरे देश की राजनीति को लौकिक, सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का बोध हो रहा है। गुना और राघौगढ़ में धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी का दरबार लगना इसी का धोतक है।

बाकी तो, जाकी रही भावना जैसी।
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।। 
वैसे एक बात और है कि, जब श्री राम के काल में उनकी प्रजा में शामिल कुछ लोगों ने प्रभु श्री "राम" को भी तोहमत लगाने से नहीं छोड़ा तो "आम" की बिसात ही क्या है।

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