'धर्मांतरण को गंभीर बताकर जमानत देने से इनकार नहीं कर सकते', सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जजों को चेताया

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि हर साल ट्रायल जजों को यह समझाने के लिए इतने सारे सम्मेलन, सेमिनार, कार्यशालाएं आदि आयोजित की जाती हैं कि जमानत आवेदन पर विचार करते समय उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए।

Jan 28, 2025 - 12:05
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'धर्मांतरण को गंभीर बताकर जमानत देने से इनकार नहीं कर सकते', सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जजों को चेताया

नई दिल्ली (आरएनआई) सुप्रीम कोर्ट ने मानसिक रूप से विक्षिप्त नाबालिग लड़के को इस्लाम में धर्मांतरित करने के आरोपी मौलवी को जमानत देने से मना करने पर सोमवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट को कड़ी फटकार लगाई। शीर्ष अदालत ने कहा कि जमानत देना विवेक का मामला है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जज अपनी मर्जी से धर्मांतरण को बहुत गंभीर मामला बताकर जमानत देने से मना कर दें।

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने अपने आदेश में कहा, हम समझ सकते हैं कि ट्रायल कोर्ट ने जमानत देने से मना कर दिया क्योंकि ट्रायल कोर्ट शायद ही कभी जमानत देने का साहस जुटा पाते हैं, चाहे वह कोई भी अपराध हो। लेकिन कम से कम, हाईकोर्ट से यह उम्मीद की जाती थी कि वह साहस जुटाए और अपने विवेक का न्यायपूर्ण तरीके से इस्तेमाल करे।

शीर्ष अदालत ने मौलवी सैयद शाद खजमी उर्फ मोहम्मद शाद को रिहा करने का आदेश दिया। कानपुर नगर में दर्ज मामले में गिरफ्तार शाद 11 महीने से जेल में था। अदालत ने महसूस किया कि वास्तव में यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक नहीं पहुंचना चाहिए था। सरकार की तरफ से पेश वकील ने पीठ को बताया कि आरोपी को अधिकतम 10 साल तक की जेल की सजा वाले अपराध में गिरफ्तार किया गया था। वहीं, बचाव पक्ष ने दावा किया कि लड़के को सड़क पर छोड़ दिया गया था और उसने मानवीय आधार पर नाबालिग को आश्रय दिया।

दोनों पक्षों को सुनने के बाद पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट के पास जमानत देने से इन्कार करने का कोई उचित कारण नहीं था। आरोपी पर लगा अपराध हत्या, डकैती, बलात्कार आदि जैसा गंभीर या संगीन नहीं है। वह यह समझने में विफल रही कि यदि याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा कर दिया जाता तो अभियोजन पक्ष को क्या नुकसान होता। याचिकाकर्ता पर मुकदमा चलाया जाएगा और अंततः यदि अभियोजन पक्ष अपना मामला साबित करने में सफल होता है, तो उसे दंडित किया जाएगा।

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि हर साल ट्रायल जजों को यह समझाने के लिए इतने सारे सम्मेलन, सेमिनार, कार्यशालाएं आदि आयोजित की जाती हैं कि जमानत आवेदन पर विचार करते समय उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए। पीठ ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा, कभी-कभी जब उच्च न्यायालय वर्तमान प्रकार के मामलों में जमानत देने से इनकार करता है तो इससे यह आभास होता है कि पीठासीन अधिकारी ने जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों की अनदेखी करते हुए पूरी तरह से अलग विचार रखे हैं। यही एक कारण है कि हाईकोर्ट और अब दुर्भाग्य से देश के सर्वोच्च न्यायालय में जमानत आवेदनों की बाढ़ आ गई है।

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