देवी अहिल्याबाई त्रिजन्मशताब्दी समारोह आयोजित किया गया
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गुना (आरएनआई) लोकमाता देवी अहिल्याबाई की 300 वी जयंती पर स्वर्गीय नाथूलाल मंत्री जन कल्याण न्यास द्वारा देवी अहिल्याबाई त्रिजन्मशताब्दी समारोह आयोजित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता न्यास के अध्यक्ष अशोक सिंह कुशवाह ने की।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता शिक्षाविद् अशोक पाठक का उद्बोधन प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा कि लोकमाता देवी अहिल्याबाई राष्ट्रीय स्वाभिमान और सनातन संस्कृति की ध्वजवाहक थीं, उनका कृतित्व संपूर्ण समाज के लिए अनुकरणीय है। जिस प्रकार इतिहास में शिवाजी महाराज की माता जीजाबाई और अंग्रेजों से लोहा लेने के कारण लक्ष्मीबाई को स्थान मिला वैसा किसी कारण से लोकमाता को नहीं मिल सका। इसलिए जन्म के त्रिशताब्दी वर्ष में उनके महान जीवन को सामने लाना होगा। श्री पाठक ने बताया कि जब हम अहिल्याबाई के जीवन को पढ़ते हैं तो उनके द्वारा किए गए कार्यों से उनकी समझ, दूर दृष्टि, कूटनीति और विभिन्न क्षेत्रों में योग्यता का पता चलता है। भारत में जिन महिलाओं का जीवन आदर्श, वीरता, त्याग तथा देशभक्ति के लिए सदा याद किया जाता है, उनमें रानी अहल्याबाई होल्कर का नाम प्रमुख है। उनका जन्म 31 मई, 1725 को ग्राम छौंदी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री मनकोजी राव शिन्दे परम शिवभक्त थे। अतः यही संस्कार बालिका अहल्या पर भी पड़े। वह सिर्फ एक योग्य प्रशासकीय प्रबंधन ही नहीं बल्कि उच्च कोटि की वित्तीय प्रबंधक भी थीं। उन्होंने अपने कार्यकाल में पर्यावरण और जनता के प्रति प्रेम, न्याय प्रियता, आत्मविश्वास और मंदिरों के जीर्णोद्धार के क्षेत्र ऐतिहासिक योगदान दिया। महिला सशक्तिकरण का सबसे पहले बीड़ा अहिल्याबाई ने ही उठाया। श्री पाठक ने एक प्रसंग सुनाया कि एक बार इन्दौर के राजा मल्हारराव होल्कर ने वहां से जाते हुए मन्दिर में हो रही आरती का मधुर स्वर सुना। वहां पुजारी के साथ एक बालिका भी पूर्ण मनोयोग से आरती कर रही थी। उन्होंने उसके पिता को बुलवाकर उस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव रखा। मनकोजी राव भला क्या कहते; उन्होंने सिर झुका दिया। इस प्रकार वह आठ वर्षीय बालिका इन्दौर के राजकुंवर खांडेराव की पत्नी बनकर राजमहलों में आ गयी।
हिंदू धर्म के प्रति उनमें अगाध आस्था थी। आज यदि उनके अनुकरणीय कार्यों को जन जन तक पहुंचाया जाए तो अधिकांश समस्याओं का समाधान स्वतः ही मिल जाएगा। 13 अगस्त, 1795 ई0 को 70 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हुआ। उनका जीवन धैर्य, साहस, सेवा, त्याग और कर्तव्यपालन का प्रेरक उदाहरण है। इसीलिए एकात्मता स्तोत्र के 11वें श्लोक में उन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, चन्नम्मा, रुद्रमाम्बा जैसी वीर नारियों के साथ याद किया जाता है। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में श्रोता उपस्थित हुए।
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