'जल्द सुनवाई न होना आरोपी के मौलिक अधिकारों का हनन', सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
पीठ ने कहा कि आरोपी जेल में काफी समय बिता चुका है और बतौर सुनवाई के दौरान उसे इतने लंबे समय तक जेल में रखना संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जल्द सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन है। अदालत ने कहा कि 'लंबी सुनवाई से न सिर्फ आर्थिक बोझ पड़ता है, बल्कि इसके साथ कई सामाजिक प्रभाव और तनाव बढ़ता है।

नई दिल्ली (आरएनआई) सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चाहे जितना भी गंभीर अपराध हो, जल्द सुनवाई आरोपी का मौलिक अधिकार है और यह संविधान के अनुच्छेद 21 में शामिल है। यूएपीए कानून की धाराओं में जेल में बंद आरोपी को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी की। आरोपी बीते पांच वर्षों से पुलिस हिरासत में था।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की सदस्यता वाली पीठ ने आरोपी को जमानत दी, जिसे छत्तीसगढ़ पुलिस ने नक्सल गतिविधियों में कथित तौर पर शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया था। आरोपी साल 2020 से पुलिस में हिरासत में था। अभियोजन पक्ष को 100 गवाहों से पूछताछ करनी थी, जिनमें से 42 से पूछताछ हो चुकी है। 42 ने पूछताछ में लगभग एक ही बात बोली है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने पूरे 100 लोगों से पूछताछ पर सवाल उठाए और कहा कि सभी से एक ही बात जानने का कोई मतलब नहीं है।
पीठ ने कहा कि आरोपी जेल में काफी समय बिता चुका है और बतौर सुनवाई के दौरान उसे इतने लंबे समय तक जेल में रखना संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जल्द सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन है। अदालत ने कहा कि 'लंबी सुनवाई से न सिर्फ आर्थिक बोझ पड़ता है, बल्कि इसके साथ कई सामाजिक प्रभाव और तनाव बढ़ता है। लोगों को आरोप लगने के बाद अपनी नौकरी खोने और रिश्तों के टूटने का कोई मुआवजा भी नहीं मिलता और उन्हें अपनी जिंदगी फिर से शुरू करनी होती है।' पीठ ने कहा कि 'अगर आरोपी ने फैसला आने तक मुकदमे की सुनवाई के दौरान जेल में छह-सात साल गुजारे हैं तो इसका मतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले अधिकार का उल्लंघन हुआ है।' पीठ ने कहा कि 'सुनवाई में देरी से न सिर्फ पीड़ितों बल्कि भारतीय समाज और न्याय व्यवस्था और इसकी विश्वसनीयता को भी नुकसान पहुंचता है।'
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