'उपहार को वैध बनाने के लिए कब्जे की सुपुर्दगी आवश्यक नहीं', सुप्रीम कोर्ट का अहम आदेश
सुप्रीम कोर्ट में एक अहम मामले में सुनवाई हुई। इस मामले में पहले ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय न्यायालय ने निपटान विलेख दस्तावेज को वसीयत माना था और पिता की ओर से 1993 में संपत्ति के रद्दीकरण और अपीलकर्ता बेटे को बिक्री को चुनौती देने वाली बेटी के मुकदमे को खारिज कर दिया था। इसके बाद मामला पहले हाईकोर्ट और फिर अब शीर्ष अदालत पहुंचा।

नई दिल्ली (आरएनआई) सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उपहार को वैध बनाने के लिए कब्जे की सुपुर्दगी आवश्यक नहीं है। शीर्ष अदालत ने माना कि जब संपत्ति हस्तांतरण में प्रेम और स्नेह जैसे विचार शामिल हो तो यह उपहार के रूप में समझौता विलेख के रूप में योग्य होता है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि एक बार जब दानकर्ता समझौता विलेख के माध्यम से उपहार स्वीकार कर लेता है तो दाता इसे एकतरफा रद्द नहीं कर सकता।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने माना है कि दाता के आजीवन हित को आरक्षित करने और दानकर्ता को कब्जे की सुपुर्दगी को स्थगित करने मात्र से दस्तावेज वसीयत नहीं बन जाता। पीठ ने स्थापित कानून का हवाला दिया कि कब्जे की सुपुर्दगी उपहार या समझौते को मान्य करने के लिए अनिवार्य नहीं है। आजीवन हित को बनाए रखने पर, दाता संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 41 के अनुसार केवल संपत्ति का एक प्रकट मालिक के रूप में जारी रहेगा।
पीठ ने कहा, कब्जा देना स्वीकृति साबित करने के तरीकों में से एक है, न कि एकमात्र तरीका। वादी के मूल दस्तावेज की प्राप्ति और उसका पंजीकरण, उपहार की स्वीकृति के बराबर होगा और यह लेनदेन संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 122 की आवश्यकता को पूरा करता है।
वर्तमान मुकदमे में संपत्ति प्रतिवादी संख्या 1 (बेटी) को उसके पिता द्वारा 26 जून, 1985 को एक पंजीकृत समझौता विलेख के माध्यम से प्रेम और स्नेह से दी गई थी, जिसमें पिता ने आजीवन हित और सीमित बंधक अधिकार बनाए रखे थे। समझौता विलेख में कहा गया था कि बेटी को संपत्ति का निर्माण करने और करों का भुगतान करने की अनुमति थी, जो तत्काल अधिकारों को दर्शाता है और उसे माता-पिता की मृत्यु के बाद संपत्ति पर कब्जा करने की अनुमति दी गई थी। विवाद तब हुआ जब प्रतिवादी संख्या 1 के पिता ने अपनी बेटी-प्रतिवादी संख्या 1 को उपहार रद्द करने के लिए एक रद्दीकरण विलेख बनाया। पिता ने अपने बेटे-अपीलकर्ता के पक्ष में बिक्री विलेख तैयार किया। इसके बाद बेटी ने संपत्ति पर अधिकार, टाइटल और हित की घोषणा के लिए मुकदमा दायर किया और कहा कि अपीलकर्ता के पक्ष में पिता के बनाए 1993 का रद्दीकरण विलेख और बिक्री विलेख शून्य और अमान्य था।
ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय न्यायालय ने निपटान विलेख दस्तावेज को वसीयत माना और पिता की ओर से 1993 में संपत्ति के रद्दीकरण और बेटे (अपीलकर्ता) को बिक्री को चुनौती देने वाली बेटी के मुकदमे को खारिज कर दिया। हालांकि हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णयों को उलट दिया। हाईकोर्ट ने दस्तावेज को उपहार विलेख घोषित किया और रद्दीकरण व बिक्री को अमान्य कर दिया। हाईकोर्ट के निर्णय को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता-पुत्र ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए अपीलकर्ता की याचिका को खारिज कर दिया।
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