इसलिए चांदी का चम्मच फेंक ज़हर का प्याला पी रहे राहुल!!!
नवेद शिकोह
निराशा, पराजय, आलोचना, गालियां और लम्बे संघर्ष के जितने कांटे चुभेंगे भविष्य में उतना लम्बा सत्ता का क़ालीन समय का चक्र बिछा देगा। सियासत का यही क़ायदा है। दूध, सोने और मरहूम ऐथलीट मिल्खा जैसी ख़ासियतें असरदार होती हैं। खूब स्वादिष्ट होने के लिए दूध को खूब खपना पड़ता है। कुंदन बनने के लिए सोने को आग में तपना पड़ता है। मिल्खा बनने के लिए हर सुबह की नींद त्यागनी पड़ती है। दौड़-दौड़ कर टांगों को पंख बना देना पड़ता है। सियासत भी ऐसी ही कुर्बानियां मांगती है। कुछ बड़ा पाने के लिए संघर्ष और पसीने की बली देनी पड़ती है। चांदी का चम्पच लेकर पैदा होना जुर्म नहीं है लेकिन यदि वक्त ने आपको संघर्षों की ट्रेनिंग नहीं दी तो चांदी के चम्मच वाले किसी भी क्षेत्र में टिकाऊ नहीं साबित होते।
सियासत के शिखर पर पंहुचने से पहले नरेन्द्र मोदी का जितना विरोध होता था राहुल गांधी का उनसे ज्यादा विरोध होने लगा है। नरेंद्र मोदी को चाय की भट्टी की तपिश, संघ के अनुशासित संघर्ष के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली। इस तरह सीढ़िया तय करते हुए वो प्रधानमंत्री बने। लोकप्रियता के चरम पर पंहुचे और दोबार प्रचंड बहुमत से देश ने मोदी को प्रधानमंत्री बनाया।
राहुल गांधी वाकई चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए थे। बल्कि चांदी का चम्मच लेकर पैदा होने वालों के तसव्वुर में राहुल से बड़ा कोई चेहरा ही नहीं है। इस देश में राहुल के परिवार से बड़ा परिवार किसका था ? किसी का नहीं। आजादी की लड़ाई से लेकर भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था मे चुनी गई हुकुमतों के तख्त-ओ-ताज वालों के घराने के चश्मों चिराग हैं राहुल। प्रधानमंत्रियों की फसल देने वाली हिन्दुस्तान की सियासत की खानदानी जमीन में राहुल गांधी ने जन्म लिया। वो गांधी/नेहरू परिवार के वारिस हैं। भारत के प्रधानमंत्रियों की गोद में पला-बढ़ा ये शख्स अपनी जवानी की पहली अंगड़ाई प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ले सकता था। तीस से चालीस वर्ष की मुद्दत तक किसी भी युवक का कैरियर तय हो चुका होता है। इस उम्र में वो मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक बन सकते थे। लेकिन उन्होंने वो मिसाल गलत साबित कर दी कि मछली के बच्चे को तैरने की प्रक्टिस नहीं करनी होती है। उन्होने वक्त से खूब सीखा। दादी इंदिरा गांधी के खून के अक्स में सियासत का सियाह चेहरा देखा। पिता राजीव गांधी के टुकड़े टुकड़े हो चुके जनाजे में देश पर कुर्बान होने का जज्बा देखा। मां सोनिया गांधी के उपदेश को महसूस किया जिसमें उन्होंने कहा था कि सत्ता ज़हर है। राहुल के लिए सत्ता की डोर पकड़ना इतना आसान था जितना आसान एक बच्चे के लिए झुनझुना पकड़ना होता है। लेकिन उन्हें मंझना था, तपना था, आलोचनाएं सहनी थी और खूब संघर्ष करने का जुनून था। इसीलिए कांग्रेस की सत्ता में भी वो विपक्षी तेवरों में दिखे। एक अध्यादेश उन्हें जनहित मे नहीं लगा तो किसी विपक्षी नेता की तरह कांग्रेस सरकार का तैयार किया हुआ अध्यादेश उन्होंने फाड़ कर अपना विरोध प्रकट किया था। पिछले आठ-नौ साल से एक दौलतमंद और ताकतवर प्रचारतंत्र उन्हें पप्पू साबित कर के कभी मजाक उड़ाता है, कभी गालियां देता है, कही कटु आलोचना करता है। नकारात्मक छवि तैयार करने वाला ऐसा विष तेज़ाब की सूरत में राहुल गांधी के चांदी के चम्मच की छवि को गला चुका है। चुनावी पराजय ने उन्हें कभी हताश नहीं होने दिया। विपक्ष की सक्रिय भूमिका में वो जमीनी नेता बनते जा रहे हैं। गांधी परिवार का कोई एक भी नेता इतनी लम्बी विपक्षी भूमिका मे नहीं रहा जितना वो रहे। दूध खप रहा है, सोना आग मे तप कर कुंदन बन रहा है। एक कमजोर युवक दौड़-दौड़ कर विश्व विजेता मिल्खा बनने जा रहा है। एक जमाने में नरेंद्र मोदी की छवि को नकारात्मक बनाने, उनकी आलोचना करने वालों ने भी ये नहीं सोचा होगा कि गालियां और कटु आलोचनाएं आर्शीवाद बन जाती हैं। जहर नीलकंठ बना जाता है, अमृत बना देता है।
इसलिए ये भी हो हो सकता है कि संघर्षों, पराजय और आलोचनाओं की पराकाष्ठा सहने वाले राहुल गांधी को समय का चक्र नेहरू,इंदिरा,राजीव,अटल और मोदी से भी अधिक लोकप्रिय नेता बना दे! उनके विरोधियों ने जो उन्हें पप्पू का खिताब दिया है ये खिताब ही रंग ला सकता है। पप्पू नाम भारत की आम जनता का प्रतीक है। एक रिसर्च के मुताबिक ये नाम सबसे ज्यादा उपयोग होने वाला भारतीय नाम है।
कांगेस के युवराज का ताना खाने वाले राहुल गांधी का आज जन्म दिन है। दिन, महीने और साल गुजर रहे हैं। विपक्षी राजनीति में सबसे अधिक सक्रिय और चर्चा मे रहने वाला कांग्रेस का ये नेता थक नहीं रहा, हार नहीं रहा और हताश नहीं हो रहा, बल्कि परिपक्व होता जा रहा है। ताजुब नहीं कि आलोचनाओं का गुबार छंटने के बाद राहुल गांधी भारत की आम जनता के सबसे बड़े लोकप्रिय नेता साबित हों।
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